प्रेमचंद घर मे-शिवरानी देवी
जब बात होती है प्रेमचंद के लेखन की तो बहुत से लोग ये कहते मिल जाते हैं कि हमने भी पढ़ा है प्रेमचंद को और हम भी उनके लेखन के बारे में जानते हैं। क्या है गोदान में, क्या कहता है सेवासदन या कितनी गहराई है मानसरोवर की कहानियों में। हिन्दी गद्य को पूर्ण करने वाले प्रेमचंद जैसे कथाकार, उपन्यासकार की लेखनी में जितनी गहराई थी, उतनी ही गहराई उनके व्यक्तित्व में भी थी। जिसे अगर कोई जानता था, तो वो थी उनकी पत्नी शिवरानी देवी।
शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे, अनजान थे। ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद की जीवनी किसी और ने लिखी ही नहीं, उनके ही बेटे अमृराय ने 'कलम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी थी। कई अन्य साहित्यकारों ने भी इस दिशा में प्रयास किए, लेकिन वो सारा लेखन सुनी-सुनाई घटनाओं पर आधारित था। जिसमें लेखकों की खुद की भी थोड़ी-बहुत कल्पनाएँ शामिल होती थीं। लेकिन शिवरानी देवी द्वारा लिखी गई इस जीवनी में हर घटना खरे सोने की तरह है, क्योंकि उन्होंने खुद उन पलों को जिया है और महसूस किया है।
यह पुस्तक 1944 में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा 2005 में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इन्होंने स्वयं भी यह बात स्वीकार की है कि शिवरानी देवी की 'प्रेमचंद घर में' साहित्य की एक अमूल्य निधि है और इसका अधिक-से-अधिक पाठकों तक पहुँचना आवश्यक है, ताकि लोग जान सकें प्रेमचंद के उस सहज, सरल और भावना से परिपूर्ण व्यक्तित्व को।
प्रेमचंद के व्यक्तित्व की साफगोई को जिस तरह से उनकी पत्नी ने बयान किया है, वह हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए पठनीय है। वो एक महान साहित्यकार थे, यह बात साहित्य प्रेमियों से छिपी नहीं है। साथ ही उनकी सह्दयता से भी लोग वाकिफ थे। लेकिन बहुत कम लोग ही ये जानते होंगे कि साहित्य से इतर वे एक संवेदनशील पति भी थे, जो स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे। उन्होंने अपनी पत्नी को हमेशा प्रेरित किया कि वे लिखें और सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लें। अगर शिवरानी देवी किसी काम के लिए कदम बढ़ाती थीं, तो प्रेमचंद उनके साथ दो कदम बढ़ाने को तैयार रहते थे। यही वजह थी कि वे कहीं भी किसी सम्मेलन या साहित्य कार्यक्रमों में हिस्सा लेने जाते तो शिवरानी देवी से आग्रह करते कि वे भी उनके साथ चलें। अपनी पत्नी के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम और सम्मान था।
शिवरानी देवी ने उनके साथ बिताए जीवन के उन सुनहरे पलों को जिस सहज संवेदना के साथ लिखा है, उसे शायद ही अन्य साहित्यकार लिख पाता, क्योंकि उनके लेखन में भावनाओं का कहीं अभाव नहीं है और न ही उसके प्रवाह में ही कोई कमी नजर आती है। जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने साहित्य रचना का साथ नहीं छोड़ा और पत्नी के प्रति उनका लगाव और भी बढ़ गया। शिवरानी देवी को इस बात का हमेशा मलाल रह गया कि वे अपने पति की महानता को उनके मरणोपरांत ही समझ पाईं। उनकी मृत्यु के बाद शिवरानी देवी का वह विलाप ह्दय को छू लेता है कि जब तक जो चीज हमारे पास रहती है तबतक हमें उसकी कद्र नहीं होती, लेकिन वो हमसे ओझल हो जाए तो हमारा मन पछताता रहता है। फिर हमारे पास दुःखी होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता।
प्रेमचंद के मरणोपरांत शिवरानी देवी के जीवन में भी ऐसी ही परिस्थितियाँ उभरकर आई। ऐसे में उनकी लेखनी से साहित्य जगत के लिए यह संग्रहनीय जीवनी फूटी। इस जीवनी को पढ़कर साहित्यप्रेमी प्रेमचंद को केवल एक साहित्यकार के रूप में ही नहीं, बल्कि उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को जान पाएँगे।
ड्योढ़े दर्जे में
शिवरानी देवी
सन 1929 की बात है। मैं प्रयाग से लौट रही थी। मेरे साथ बन्नू था, आप (प्रेमचंद) थे। हम तीनों इंटर क्लास से आ रहे थे। चैत का महीना था, अष्टमी थी। गाडि़यों में बेहद भीड़ थी। जब बहुत - से देहाती मुसाफिर हमारे डिब्बे में घुस आए तो आप बोले - यह ड्योढ़ा दर्जा है, किराया ज्यादा लगेगा।
देहाती लोग बोले - क्या करें बाबूजी, दो रोज से पड़े हैं।
आप बोले - तुम लोग कहाँ से आ रहे हो, कहाँ जाओगे?
'हम लोग शीतलाजी के दर्शन करने गए थे।' देहातियों ने कहा।
आप बोले - शीतलाजी के दर्शन करने से तुम्हें क्या मिला? सच बताओ, तुम लोगों का कितना-कितना खर्चा हुआ है?
'एक-एक आदमी के कम-से- कम पंद्रह रुपए।' देहातियों ने कहा।
आप बोले - इसका मतलब कि तुम लोगों ने चार-चार महीने के खाने का गल्ला बेंच दिया। इससे अच्छा होता कि देवीजी की पूजा तुम घर पर ही कर लेते। देवीजी सब जगह रहती हैं। वहाँ भी तुम पूजा कर सकते थे। देवी-देवता तभी खुश होते हैं जब तुम आराम से रहो।
'क्या करें मनौती माने थे। अगर देवीजी के यहाँ न जाते तो नाराज न होतीं!' देहातियों ने कहा।
गाड़ी बेहद भरी थी। साँस लेना कठिन था। गर्मी भी पड़ने लगी थी। अगला स्टेशन जब आया तो मैं बोली - इनसे कह दीजिए उतर जायँ। इन उपदेशों का पालन इनसे नहीं होगा।
आप बोले - तो बिना समझाए भी तो काम नहीं चलने का।
मैं बोली - फिर से समझा लेना। मेरा तो दम घुटा जा रहा है।
आप बोले - इन्हीं के लिए तो जेल जाती हो, लड़ाई लड़ती हो और इन्हीं को हटा रही हो। मुझे तो इन गरीबों पर दया आती है। बेचारे भूखों धर्म के पीछे मर रहे हैं।
मैं बोली - जो बेवकूफी करेगा, वह भूखों न मरेगा तो और क्या होगा?
आप बोले - क्या करें। सदियों से अंध-विश्वास के पीछे पड़े हैं।
मैं बोली - जो खुद ही मरने के लिए तैयार हैं, उन्हें कोई जिंदा रख सकता है? इन के ऊपर जबरन कोई कानून लगा दिया जाय तो इनमें समझ आ सकती है।
तब आप बोले - धीरे-धीरे समझ लेंगे। यद्यपि अभी काफी देर है। कोई काम जबरन किया जायगा तो मरने-मारने को तैयार हो जायँगे।
मैं बोली - तो गाड़ी में बैठे-बैठे नहीं सीख जायँगे।
तो फिर बोले - आखिर तब कब समझाया जाय?
मैं बोली - आप इन्हीं के लिए तो पोथा-का- पोथा लिख रहे हैं।
'ये उपन्यास लेकर थोड़े ही पढ़ते हैं। हाँ, उन उपन्यासों के फिल्म तैयार कर गाँव-गाँव मुफ्त दिखलाए जाते तो लोग देखते।' - आप बोले।
मैं बोली - पहले आप लिख डालिए। फिर फिल्म तैयार करवाइएगा।
हममें ये बातें हो रही थीं कि तब तक रेलवे-पुलिस का आदमी आया। उन सबों को धमकी देने लगा और कहने लगा कि ड्योढ़ा है और किराया लाओ।
उस पुलिसमैन की हरकत देखकर आपको बड़ा क्रोध आया और बोले - तुम लोग आदमी हो या पशु?
'पशु क्यों हूँ? तीसरे दर्जे का किराया दिया और ड्योढ़े में आकर बैठे हैं!'
'तीसरे में जगह थी जो उसमें बैठते? किराया तो तुमने ले लिया। यह भी देखा कि गाड़ी में जगह है या नहीं? आदमियों को पशु बना रखा है, तुम लोगों ने। मैं इनके पीछे लड़ूँगा। यह राहजनी कि किराया ले लें और गाड़ी में किसी को भी जगह नहीं। चलो, दो इनको तीसरे दर्जे में जगह और उन आदमियों से कहा कि चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।' और उन आदमियों को लिए हुए पुलिसमैन के साथ आप उतर पड़े।
पुलिसमैन ने उन आदमियों को किसी तरह एक-एक करके भरा। जब आप लौटकर आए तो तुझसे बोले - देखा इन आदमियों को?
मैं बोली - आप क्यों लड़ने लगे?
आप बोले - मैं क्या कोई भी इस तरह की हरकत नहीं देख सकता। और इस तरह के अत्याचार देखकर कुछ न बोले तो मैं कहूँगा कि उसके अंदर गर्मी नहीं है।
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