मरता किसान-बढ़ता भारत?
मरता किसान-बढ़ता भारत?
लेखक-विष्णु वैश्विक
किसान की आह जो दिल से निकाली जाएगी
क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी?
शर्म तो आपको भी आएगी जब आप सुनेंगे कि पिछले 20 साल में हमारे देश में 3 लाख 20 हज़ार से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं।लेकिन क्या इस शर्म से किसानों का कुछ लाभ होगा? शायद हाँ। मैं बताता हूँ कैसे!
देश का किसान पिछले 2 सालों से अपने संघर्ष को धार देने पर लगा है जिसमें थोड़ा-बहुत शर्म करने वाले लोग किसानों का साथ देने के लिए सड़कों पर आए तभी ये आंदोलन तेज़ हो पाया और किसानों की आवाज़ हुक्मरानों के कान तक पहुंचने लगी जिसके चलते MSP के वादों को दोहराया गया और कुछ राज्यों में औने-पौने कर्जमाफी भी की गई।
लेकिन ज़रूरत है कि हर किसान को उसके कर्ज़ से मुक्ति मिल पाए और फ़सलों का उचित दाम मिल पाए।इन्हीं माँगों के आसरे देश भर के क़रीब 207 छोटे-बड़े किसान संगठन लगभग 50 हजार किसानों के साथ ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के संयोजन में संसद भवन के सामने धरना देने पहुंचे। माँग तो जानी-पहचानी सी हो ही गई है-किसान कर्जमाफी और फसलों के डेढ़ गुना दाम।इस बार जो नयापन था वो ये कि किसानों की खेती पर गहराते संकट को ध्यान में रखते हुए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए और पूर्ण
ऋणमुक्ति और फसलों के उचित दाम को मंजूरी दी जाए।
इस धरने में देश के बड़े नेताओं ने भाग लिया।राहुल गाँधी,अरविंद केजरीवाल से लेकर माकपा प्रमुख सीताराम येचुरी और भाकपा नेता डी. राजा मौजूद रहे।साथ ही राकांपा से शरद पवार, नेशनल कॉन्फ्रेंस के डॉ. फारुक अब्दुल्ला, लोकतांत्रिक जनता दल के शरद यादव, तृणमूल कांग्रेस के दिनेश त्रिवेदी भी शामिल हुए।
हमारे देश में किसान की स्थिति सबसे अधिक दयनीय है। उनके लिए सिर्फ कुछ दिन ही नहीं बल्कि हमेशा ही जागकर सोचने और कुछ करने का समय है,क्यूंकि हम सभी अपने विकास के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं।
किसान एक ऐसा मजदूर है जो मेहनत करके भी दुखी है, मजबूर है। आज भारत में सबसे दयनीय हालत किसान की हैं | देश की आजादी के बाद से हर स्थिति में सुधार आया लेकिन किसान के स्तर में कोई सुधार नहीं |इनकी स्थिति हर बीतते वर्ष के साथ दयनीय होती जा रही हैं | किसान देश की नींव है और जब-जब इस नींव पर संकट आता है तो देश की आधारशिला हिल जाती है।
आज सबसे ज्यादा जरुरत हैं कि कैसे किसान एवम कृषि के स्तर को ऊपर उठाया जाये ? कैसे देश को इस दिशा में आत्मनिर्भर बनाया जाये ?जिससे कि किसान आत्महत्या जैसे दुःखद कदम उठाने पर मजबूर ना हो।
मौजूदा समय में देश के अन्न दाता कहे जाने वाले किसान की हालत दिन-ब-दिन बदहाल होती चली जा रही है। इसी साल सूखे की चपेट में आए बारह राज्यों के किसान अभी ठीक से संभल भी नहीं पाए थे कि पीएम मोदी के नोटबंदी के फैसले ने उनकी ज़िन्दगी में भूचाल ला दिया है। न तो तैयार फसल की कीमत मिल रही है और न ही बीज व खाद।
इस बीच अब राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने चौकाने वाले आंकडे प्रस्तुत किए हैं जिसके मुताबिक़ फसल का उचित दाम न मिल पाने, खेती से जुडी दिक्कतें और बढ़ते कर्ज के भार की वजह से किसान आत्महत्याओं में 2014 के मुकाबले 2015 में लगभग 42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
एनसीआरबी की इस रिपोर्ट को देखें तो साल 2014 में 12,360 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने खुदकुशी कर ली। ये संख्या 2015 में बढ़ कर 12,602 हो गई।
ऐसे में सवाल उठाना लाज़मी है कि लोकसभा चुनाव के दौरान चुनावी रैलियों में पीएम मोदी ने किसानो की आँखों में रौशनी जगमगाएं थी, सत्ता में आने के बाद उन वादों को भुला बैठें हैं औए अच्छे दिन आने के सपने सजोने वाले किसानों की हालत में सुधार आने के बजाए स्थिति और चिंताजनक होती जा रही है।
किसान जब तक जिंदा है, तब तक उसकी कोई कीमत नही है। जब तक किसान मरता नही है, चाहे वो आत्महत्या हो या गोली से हत्या हो, तब-तक कोई उसकी तरफ ध्यान नही देता। किसानों की हत्या के लिए पार्टियां एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने में लगी हैं और इसी में बड़ा सवाल दबता जा रहा है कि किसान क्यों मारे गए।बड़ी सफाई से किसानों के आत्महत्या का सवाल भी दबा दिया जा रहा है।सरकारों को जल्द से जल्द किसानों की मांग को सुनिश्चित करना चाहिए नहीं तो किसानों का स्वतः स्फूर्त आंदोलन और भी उग्र हो सकता है।
आज इस देश में किसानी घाटे का धंधा हो गई है। किसान के पास आमदनी नही है ,और यह जो आंदोलन हुआ है मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में जो कि बाकी इलाकों में बढ़ सकता है,क्या इसके चलते इस देश को ध्यान आएगा कि किसान के पास आय नही है?
भारतीय जनता पार्टी को याद आएगा कि 4 साल पहले इस देश के किसान को लिख कर वायदा किया था मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र में और देश भर के राष्ट्रीय मेनिफेस्टो में कि वो किसान को उसकी लागत से पचास प्रतिशत अधिक कीमत देंगे,जो कि सुप्रीम कोर्ट में जाकर साफ मुकर गई, क्या इस पर फिर से ध्यान दिया जाएगा?RBI के चीफ को इस देश के उद्योगों के साथ बड़ी सहानुभूति होती है।RBI के चीफ को चिंता हो जाती है देश के ओवरऑल फिस्कल डेफिसिट(सकल राजकोषीय घाटा) क्या होगा, लेकिन किसान के दुःख के बारे में,परिस्थिति के बारे में चिंता नही होती। इसलिए एक बड़ा सवाल यह है क़ि क्या इन घटनाओं से इन बड़े सवालों के प्रति देश का रूलिंग पार्टी का,मीडिया का ध्यान आकृष्ट होगा? किसान को कुछ मिलेगा?
आज कृषि आैर ग्रामीण उत्पादन से जुडे सभी हिस्से के संकट का बुनियादी आैर ढ़ांचागत समाधान निकालने की जरूरत है।
किसानो की मांग है कि देश में सभी किसान व खेतिहर परिवारों की स्थाई आय आश्वस्त करने के लिए एक आय गारंटी प्रणाली बनाई जाय ।जिसका 'लाभकारी आैर सार्वभाैमिक मूल्य प्राप्ति का आश्वासन' (Remunerative and Universal Price Yield Assurance (RUPYA)) नाम दिया गया।इस कार्य याेजना में फसलें की कीमत का लाभकारी हाेने,इसका लाभ सभी किसानाें काे देने ,किसी भी तरह के फसल नुकसान आैर दाम में कमी से किसान काे बचाने आदि तत्व शामिल हाेंगे। किसानों के संकट का दूरगामी समाधान 'किसानों को आय की गारंटी' है। क़र्ज़ माफ़ी तो फ़ौरी राहत है। सरकार 'किसान आय आयोग' बनाए और किसानों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित करे।
किसानों के आत्महत्या करने के कारण कई सारे है। सूखे कि वजह से खेती की बर्बादी, शादी या बीमारी के लिए कर्ज लेना पड़ता है। बैंकों से कर्ज मिलना आज भी मुश्किल है और साहुकारों के कर्ज पर 3 गुना ज्यादा ब्याज देना पड़ता है और ये हाल आज महाराष्ट्र के साथ साथ हरियाणा, पंजाब, आंध्रा और तेलंगाना में भी दिख रही है। तो इसका समाधान क्या हैं। क्या कोई कर्ज़ माफी जैसा तरीका निकालेगी सरकार। या फिर क्या किसान बीमा योजना का दायरा बढ़ाने से बात बनेगी।
किसानों के संकट का दूरगामी समाधान 'किसानों को आय की गारंटी' है। क़र्ज़ माफ़ी तो फ़ौरी राहत है। सरकार 'किसान आय आयोग' बनाए और किसानों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित करे।भारतीय किसान की खराब हालत को सुधारने के लिए 'रुपया' जैसी योजनाएं शुरू की जाएं।
2014 में नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि सभी किसानों को लागत से 50 % अधिक दिया जाएगा लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानियां कह रहे हैं।सरकारी आंकड़ों की ही मानें तो पिछले साल गेहूँ की उत्पादन लागत 1206 रुपये थी। इस हिसाब से किसानों को 1800 रुपये का एमएसपी मिलना चाहिए था लेकिन मिला केवल 1300 रुपये।बताता चलूँ की इस लागत में जमीन कि कीमत और ब्याज को शामिल नही किया गया है।इसी तरह से दाल की उत्पादन लागत 5050 रूपये थी लेकिन एमएसपी केवल 3500 रुपये का मिला।किसानों को तत्काल राहत देने के लिए सरकार को 150% एमएसपी के नियम को लागू कर देना चाहिए।
एक चिंतनीय बात यह है कि किसानों में संगठन का अभाव हमेशा से बना रहा है।किसान की पहचान हमेशा से जाति और धर्म के रूप में अलग-अलग बनी रहती है और इसी अलगाव का फायदा सरकारें हमेशा से उठाती रही हैं।ज्ञात हो कि कृषि सुधारों के लिए स्वतंत्रता के बाद से आज तक कोई बड़ा आंदोलन नही हुआ।जिसका खामियाजा भी किसानों को भुगतना पड़ा है।जाहिर है कि किसानों के लिए जब तक न्यूनतम आमदनी सुरक्षा निर्धारित नही की जाएगी ।तब तक कुछ भी नही बदलने वाला।
विष्णु वैश्विक
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