रैदास के पद

रैदास का जीवन परिचय : रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 को बनारस में हुआ था। रैदास कबीर के समकालीन हैं। रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था। संत कुलभूषण कवि रविदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया। उन्होंने सबको परस्पर मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है।

रैदास की वाणी, भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उनकी शिक्षाओं का श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।

रैदास के पद का सार :  संत कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग है, जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। उनका सच्चे ज्ञान पर विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य को अनिवार्य माना था। उनके अनुसार ईश्वर एक है और वह जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में मौजूद है।

इसी विचारधारा के अनुसार, उन्होनें अपने प्रथम पद “अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी” में हमें यह शिक्षा दी है कि हमें ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं मिलेंगे या किसी मूर्ति में नहीं मिलेंगे। ईश्वर को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय अपने मन के भीतर झाँकना है। कवि ने यहाँ प्रकृति एवं जीवों के विभिन्न रूपों का उपयोग करके यह कहा है कि भक्त और भगवान एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। उनके अनुसार ईश्वर सर्वश्रेष्ठ हैं और हर जन्म में वे ही सर्वश्रेष्ठ रहेंगे।

अपने दूसरे पद “ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।” में रैदास जी ने ईश्वर की महत्ता का वर्णन किया है। उनके अनुसार ईश्वर धनी-गरीब, छुआ-छूत आदि में विश्वास नहीं करते और वे सभी का उद्धार करते हैं। वे चाहें तो नीच को भी महान बना सकते हैं। ईश्वर ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैनु जैसे संतों का उद्धार किया था और वे  हमारा भी उद्धार करेंगे। इस तरह, उन्होंने हमें उस समय के समाज में व्याप्त जात-पाँत, छुआ-छूत जैसे अंधविश्वासों का त्याग करने की सलाह दी है।

रैदास के पद – 

(1)
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा॥

(2)
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥

रैदास के पद अर्थ सहित – 

अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा॥
रैदास के पद भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रैदास जी ने अपने भक्ति भाव का वर्णन किया है। उनके अनुसार, जिस तरह प्रकृति में बहुत सारी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी रहती हैं, ठीक उसी तरह, भक्त एवं भगवान भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उन्होंने प्रथम पंक्ति में ही राम नाम का गुणगान किया है। रैदास के पद की इन पंक्तियों में वे बोल रहे हैं कि अगर एक बार राम नाम रटने की लत लग जाए, तो फिर वह कभी छूट नहीं सकती। उनके अनुसार, भक्त एवं भगवान चन्दन की लकड़ी एवं पानी की तरह होते हैं।

जब चन्दन की लकड़ी को पानी में डालकर छोड़ दिया जाता है, तो उसकी सुगंध पानी में फ़ैल जाती है। ठीक उसी प्रकार भगवान भी अपनी सुगंध भक्त के मन में छोड़ जाते हैं। जिसे सूंघकर भक्त सदा प्रभु-भक्ति में लीन रहता है।

आगे वह कहते हैं कि जब वर्षा होने वाली होती है और चारों तरफ़ आकाश में बादल घिर जाते हैं, तो जंगल में उपस्थित मोर अपने पंख फैलाकर नाचे बिना नहीं रह सकता। ठीक उसी प्रकार, एक भक्त राम नाम लिये बिना नहीं रह सकता। रैदास जी आगे कहते हैं, जैसे दीपक में बाती जलती रहती है, वैसे ही, एक भक्त भी प्रभु की भक्ति में जलकर सदा प्रज्वलित होता रहता है।

कवि के अनुसार अगर ईश्वर मोती हैं, तो भक्त एक धागे के सामान है, जिसमें मोतियों को पिरोया जाता है अर्थात दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं और इसीलिए कवि ने एक भक्त से भगवान के मिलन को सोने पे सुहागा कहा है। रैदास के पद की इन पंक्तियों में अपनी भक्ति का वर्णन करते हुए ,रैदास जी स्वयं को एक दास और प्रभु को स्वामी कहते हैं।

ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥
रैदास के पद भावार्थ :  रैदास के पद की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रभु की कृपा एवं महिमा का वर्णन किया है। उनके अनुसार इस संपूर्ण जगत में प्रभु से बड़ा कृपालु और कोई नहीं। वे गरीब एवं दिन- दुखियों को समान भाव से देखने वाले हैं। वे छूत-अछूत में विश्वास नहीं करते हैं और मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेदभाव नहीं करते। इसी कारणवश कवि को यह लग रहा है कि अछूत होने के बाद भी उन पर प्रभु ने असीम कृपा की है। प्रभु की इस कृपा की वजह से कवि को अपने माथे पर राजाओं जैसा छत्र महसूस हो रहा है।

रैदास के पद की इन पंक्तियों से पता चल रहा है कि कवि खुद को नीच एवं अभागा मानते थे। उसके बाद भी प्रभु ने उनके ऊपर जो कृपा दिखाई है, कवि उससे फूले नहीं समा रहे हैं। प्रभु अपने भक्तों में भेदभाव नहीं करते हैं, वे सदैव अपने भक्तों को समान दृष्टि से देखते हैं। वे किसी से नहीं डरते एवं अपने सभी भक्तों पर एक समान कृपा करते हैं। प्रभु के इसी गुण की वजह से नामदेव, कबीर जैसे जुलाहे, सधना जैसे कसाई, सैन जैसे नाइ एवं त्रिलोचन जैसे सामान्य व्यक्तियों को इतनी ख्याति प्राप्त हुई। प्रभु की कृपा से उन्होंने इस संसार-रूपी सागर को पार कर लिया। रैदास के पद की अंतिम पंक्तियों में कवि संतों से कहते हैं कि हरि यानि प्रभु की महिमा अपरम्पार है, वो कुछ भी कर सकते हैं।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

1. पहले पद में भगवान और भक्त की जिन-जिन चीजों से तुलना की गई है, उनका उल्लेख कीजिए।

उत्तर:- पहले पद में भगवान की तुलना चंदन, मेघ, दीपक, मोती, सोने और स्वामी से की गई है एवं भक्त की तुलना पानी, मोर, बाती, धागे, सुहागे और दास से की गई है।

2. पहले पद की प्रत्येक पंक्ति के अंत में तुकांत शब्दों के प्रयोग से नाद-सौंदर्य आ गया है, जैसे – पानी, समानी आदि। इस पद में से अन्य तुकांत शब्द छाँटकर लिखिए।

उत्तर:- पहले पद में निम्नलिखित तुकांत शब्द प्रयोग किए गए है:

पानी – समानी

मोरा – चकोरा

बाती – राती

धागा – सुहागा

दासा – रैदासा

3. पहले पद में कुछ शब्द अर्थ की दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं। ऐसे शब्दों को छाँटकर लिखिए –

उदाहरण : दीपक – बाती

उत्तर:-

चंदन – पानी

मेघ – मोर

दीपक – बाती

मोती – धागा

सोना – सुहागा

स्वामी – दास

4. दूसरे पद में कवि ने ‘गरीब निवाजु’ किसे कहा है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:- ‘गरीब निवाजु’ का अर्थ है- गरीबों का ख्याल रखने वाला व उन पर दया दिखाने वाला। कवि ने ईश्वर को‌ ‘गरीब निवाजु’ कहा है क्योंकि प्रभु ही गरीबों का ध्यान रखते हैं, उनके कष्ट हरते है, उन पर अपनी दया-दृष्टि बनाए रखते हैं व उनका उद्धार करते हैं।

5. दूसरे पद की ‘जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै’ इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:- दुसरे पद की इस पंक्ति का आशय है कि जिन लोगों को दुनिया अछूता मानती है और जिन गरीब, निम्नवर्ग के लोगों को दुनिया दुत्कार देती है, उन्हें ईश्वर अपनाते है और प्रभु ही उन दीन-दुखियों पर दया दिखाकर उन्हें सम्मान प्रदान करते हैं।

6. ‘रैदास’ ने अपने स्वामी को किन-किन नामों से पुकारा है?

उत्तर:- रैदास ने अपने स्वामी को गरीब-निवाजु, गुसाईं, प्रभु, आदि कहकर पुकारा है।

7. निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप लिखिए –

मोरा, चंद, बाती, जोति, बरै, राती, छत्रु, धरै, छोति, तुहीं, गुसइआ।

उत्तर:-

मोरा – मोर

चंद – चंद्रमा, चांद

बाती – बत्ती

जोति – ज्योति

बरै – जले

राती – रात्री

छत्रु – छत्र




धरै – धारण करे

छोति – छुआ-छूत

तुहीं – तुम ही

गुसइआ – गोसाई

8. नीचे लिखी पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए –

1. जाकी अँग-अँग बास समानी।

उत्तर:- प्रस्तूत पंक्तियों में रैदास कहना चाह रहे हैं कि जिस प्रकार चंदन के संपर्क में आने से पानी में चंदन की महक हो जाती है, उसी प्रकार प्रभु की भक्ति में लीन रहने, उनके संपर्क में रहने व उनकी छत्रछाया में रहने से संत रैदास के भी अंग-अंग में भी प्रेम की सुगंध समा गई है।

2. जैसे चितवत चंद चकोरा।

उत्तर:- जिस प्रकार मोर मेघों को देखकर प्रफुल्लित और मंत्रमुग्ध हो जाता है और उसको इतनी खुशी होती है कि वह खुशी से नाचने लग जाता है, एवं जिस प्रकार चकोर चांद की सुंदरता में लीन होकर उसे एकटक निहारता रहता है, उसी प्रकार कवि भी अपने प्रभु की भक्ति में लीन रहते हैं और उसी में खोए रहना चाहते हैं।

3. जाकी जोति बरै दिन राती।

उत्तर:- संत रैदास का कहना है कि उनके प्रभु दीपक है और वे उसकी बाती हैं। दीपक का कार्य होता है, जग में उजियारा फैलाना और अंधकार को मिटाना; एवं दीपक की बाती का काम होता है उसकी मदद करना। इसी प्रकार संत रैदास भी जग में उजियारा फैलाने में अपने प्रभु की दिन-रात मदद कर रहे है और इसमें वे बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।

4. ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।

उत्तर:- जिन गरीब और निम्न वर्ग के लोगों को सभी दुत्कार देते है उन्हें ईश्वर अपनाकर सम्मान देते हैं, उन्हें उठाते हैं और उनका ख्याल रखते हैं; इसीलिए कवि ने कहा है कि हे दयालु, दीनबंधु! आपके जैसी दया और कोई नहीं कर सकता।

5. नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै।

उत्तर:- इन पंक्तियों के अनुसार कवि का कहना है कि ईश्वर सब कुछ कर सकते हैं। वे नीच को उठाकर ऊंचा कर सकते हैं; और इसीलिए वे उन निम्न वर्ग के लोगों जिनको दुनिया में कोई सम्मान नहीं देता उनको भी कुछ स्वर्ग जैसा सम्मान प्रदान हैं।

9. रैदास के इन पदों का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर:-

पहले पद का केंद्रीय भाव: पहले पद में संत रैदास ने स्वयं को उनका परम भक्त बताया है और कहा है कि वह प्रभु की भक्ति में इतना लीन हो गए हैं कि अब प्रभु के नाम की रट छूटे नहीं छूटती। उनका और प्रभु का संबंध चंदन और पानी, मेघ और मोर, चांद और चकोर, दीपक और बाती, मोती और धागे, सोने और सुहागे एवं स्वामी और दास के समान हो गया है। प्रभु की भक्ति के परिणामस्वरूप उनके अंग-अंग में प्रेम की सुगंध फैल गई है और वे इसमें बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।

दूसरे पद का केंद्रीय भाव: दूसरे पद में संत रैदास ने ईश्वर को दयालु, दीन-बंधु कहा है और बताया है कि उन गरीब व निम्नवर्ग के लोगों को, जिनको दुनिया दुत्कार देती है, उन्हें वह सर्वशक्तिमान ईश्वर उठाकर सम्मान प्रदान करते हैं। वेउनका उद्धार करके उनके जीवन की नैया को भवसागर के पार पहुंचाते हैं। जिनका कोई नहीं होता उनका ध्यान स्वयं ईश्वर रखते हैं।

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