अब कहाँ दूसरों के दुःख में दुःखी होने वाले
अब कहाँ दूसरे के दुख से दुखी होने वाले पाठ की व्याख्या
बाइबिल के सोलोमेन जिन्हें कुरआन में सुलेमान कहा गया है, ईसा से 1025 वर्ष पूर्व एक बादशाह थे। कहा गया है, वह केवल मानव जाति के ही राजा नहीं थे, सारे छोटे-बड़े पशु-पक्षी के भी हाकिम थे। वह इन सबकी भाषा भी जानते थे। एक दफा सुलेमान अपने लश्कर के साथ एक रास्ते से गुज़र रहे थे। रास्ते में कुछ चींटियों ने घोड़ों के टापों की आवाज़ सुनी तो डर कर एक दूसरे से कहा,'आप जल्दी से अपने-अपने बिलों में चलो, फ़ौज आ रही है। 'सुलेमान उनकी बातें सुनकर थोड़ी दूर पर रुक गए और चींटियों से बोले, घबराओ नहीं, सुलेमान को खुदा ने सबका रखवाला बनाया है। मैं किसी के लिए मुसीबत नहीं हूँ, सबके लिए मुहब्बत हूँ। चींटियों ने उसके लिए ईश्वर से दुआ की और सुलेमान अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गए।
बाइबिल - ईसाईयों का पवित्र ग्रन्थ
कुरआन - इस्लाम का पवित्र ग्रन्थ
हाकिम- राजा /मालिक
एक दफा - एक बार
लश्कर - सेना
दुआ – प्रार्थना
(यहाँ लेखक ने सुलेमान की नेक -दिली का उदाहरण दिया है)
ईसाईयों के पवित्र ग्रन्थ बाइबिल में जिसे सोलोमेन कहा जाता है, उन्हीं को इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन में सुलेमान कहा गया है। सुलेमान ईसा से 1025 वर्ष पहले एक बादशाह थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे केवल मानव जाति के ही राजा नहीं थे, बल्कि जितने भी छोटे-बड़े पशु-पक्षी थे वे सभी के राजा या मालिक कहे जाते थे। वह सभी पशु-पक्षियों की भाषा भी जानते थे। एक बार सुलेमान अपनी सेना के साथ एक रास्ते से गुज़र रहे थे।
रास्ते में कुछ चींटियों ने जब रास्ते से गुजरते हुए घोड़ों के चलने की आवाज़ सुनी तो वे डर गई और एक दूसरे से कहने लगी कि जल्दी से सभी अपने-अपने बिलों में चलो, फौज आ रही है। सुलेमान ने उनकी बातें सुन ली और वे थोड़ी दुरी पर रुके और चींटियों से बोले कि तुम में से किसी को भी घबराने की जरुरत नहीं है, सुलेमान को खुदा ने सबकी रक्षा करने के लिए बनाया है। सुलेमान किसी के लिए भी मुसीबत नहीं है बल्कि वह तो सबसे मुहब्बत अर्थात प्यार करता है। उसकी बातों को सुन कर चींटियों ने उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना की और सुलेमान अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ा।
ऐसी एक घटना का जिक्र सिंधी भाषा के महाकवि शेख अयाज़ ने अपनी आत्मकथा में किया है। उन्होंने लिखा है - 'एक दिन उनके पिता नहाकर लौटे। माँ ने भोजन परोसा। उन्होंने जैसे ही रोटी का कौर तोड़ा। उनकी नज़र अपनी बाजू पर पड़ी। वहाँ एक काला च्योंटा रेंग रहा था। वह भोजन छोड़ कर उठ खड़े हुए। 'माँ ने पूछा,'क्या बात है? भोजन अच्छा नहीं लगा?' शेख अयाज़ के पिता बोले,'नहीं यह बात नहीं है। मैंने एक घर वाले को बेघर कर दिया है। उस बेघर को कुँए पर उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ।'
जिक्र - वर्णन करना
आत्मकथा - जीवनी /अपने बारे में लिखना
कौर - ग्रास /टुकड़ा
च्योंटा - एक प्रकार का कीड़ा
रेंगना - धीरे-धीरे चलना
बेघर - जिसका घर न हो
(यहाँ लेखक ने शेख अयाज़ के पिता की अच्छाई का वर्णन किया है)
सुलेमान की नेक दिली की तरह एक और उसी तरह की घटना का वर्णन सिंधी भाषा के महाकवि शेख अयाज़ ने अपनी जीवन कथा में किया है। उन्होंने लिखा है कि एक दिन उनके पिता कुँए से नहाकर लौटे। उनकी माँ ने भोजन परोसा। अभी उनके पिता ने रोटी का पहला टुकड़ा तोड़ा ही था कि उनकी नज़र उनके बाजू पर धीरे-धीरे चलते हुए एक कीड़े पर पड़ी। जैसे ही उन्होंने कीड़े को देखा वे भोजन छोड़ कर खड़े हो गए। उनको खड़ा देख कर शेख अयाज़ा की माँ ने पूछा कि क्या बात है? क्या भोजन अच्छा नहीं लगा? इस पर शेख अयाज़ के पिता ने जवाब दिया कि ऐसी कोई बात नहीं है। उन्होंने एक घर वाले को बेघर कर दिया है वे उसी को उसके घर यानि कुँए के पास छोड़ने जा रहें हैं।
बाइबिल और दूसरे पावन ग्रंथों में नूह नाम के एक पैगंबर का ज़िक्र मिलता है। उनका असली नाम लश्कर था, लेकिन अरब ने उनको नूह के लक़ब से याद किया है। वह इसलिए कि आप सारी उम्र रोते रहे। इसका कारण एक ज़ख़्मी कुत्ता था। नूह के सामने से एक बार एक ज़ख़्मी कुत्ता गुजरा। नूह ने उसे दुत्कारते हुए कहा, 'दूर हो जा गन्दे कुत्ते !' इस्लाम में कुत्तों को गन्दा समझा जाता है। कुत्ते ने उसकी दुत्कार सुन कर जवाब दिया......'न मैं अपनी मर्जी से कुत्ता हूँ, न तुम अपनी पसंद से इंसान हो। बनाने वाला सबका तो वही एक है।'
पावन - पवित्र
पैगंबर - ईश्वर का सन्देश वाहक
दुत्कार - अपमान, तिरस्कार
लक़ब - ख़िताब, ऐसा नाम जिससे व्यक्ति के गुणों का पता चले
(यहाँ लेखक ने नूह नाम के ईश्वर के सन्देश वाहक का उदाहरण दिया है)
बाइबिल और जितने भी दूसरे पवित्र ग्रन्थ हैं उनमें नूह नाम के एक ईश्वर के सन्देश वाहक का वर्णन मिलता है। उनका असली नाम नूह नहीं था उनका नाम लश्कर था, लेकिन अरब के लोग उनको इस नाम से याद करते हैं क्योंकि वे सारी उम्र रोते रहे। इसका कारण एक जख्मी कुत्ता था। नूह के सामने से एक दिन एक जख्मी कुत्ता गुजर रहा था, उस कुत्ते को देख कर नूह ने उसे अपमानित करते हुए कहा कि गंदे कुत्ते तू दूर हो जा। ऐसा नूह ने इसलिए कहा क्योकि इस्लाम में कुत्तों को गन्दा समझा जाता है। कुत्ते ने उसकी अपमान जनक बात को सुन कर जवाब दिया कि न तो वह अपनी मर्जी से कुत्ता बना है और न ही नूह अपनी मर्जी से इंसान बना है। जिसने भी हमें बनाया है वो सबका मालिक तो एक ही है।
मिट्टी से मिट्टी मिले,
खो के सभी निशान।
कैसे हो पहचान।।
नूह ने जब उसकी बात सुनी और दुखी हो मुद्दत तक रोते रहे। 'महाभारत' में युधिष्ठिर का जो अंत तक साथ निभाता नज़र आता है, वह भी प्रतीकात्मक रूप में एक कुत्ता ही था। सब साथ छोड़ते गए तो केवल वही उनके एकांत को शांत कर रहा था।
मुद्दत - बहुत अधिक लम्बा समय
प्रतीकात्मक - प्रतिक के रूप में
एकांत – अकेला
(यहाँ लेखक ने अपने थोड़े शब्दों में अधिक कहने की कला को दर्शाया है)
लेखक इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहता है कि उस ईश्वर ने हम सभी प्राणधारियों को एक ही मिट्टी से बनाया है। यदि सभी से प्राण निकल कर वापिस मिट्टी बना दिया जाए तो किसी का कोई निशान नहीं रहेगा जिससे पहचना जा सके कि कौन सी मिट्टी किस प्राणी की है। भाव यह हुआ की लेखक कहना चाहता है व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व पर घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कोई नहीं जानता की उसमें कितनी मनुष्यता है और कितनी पशुता।
नूह ने जब कुत्ते की यह बात सुनी कि जिसने भी हमें बनाया है वो सबका मालिक तो एक ही है।तो वह लम्बे समय तक अपनी मूर्खता पर रोते रहे। उन्हें महाभारत का वह दृश्य याद आ गया जहाँ एक कुत्ता (जो यमराज थे) युधिष्ठिर का अंतिम समय तक साथ निभाता नजर आता है जबकि बाकी सभी पाण्डवों और द्रौपदी ने उनका साथ छोड़ दिया था।
दुनिया कैसे वजूद में आई? पहले क्या थी? किस बिन्दु से इसकी यात्रा शुरू हुई? इन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान अपनी तरह से देता है, धार्मिक ग्रन्थ अपनी-अपनी तरह से। संसार की रचना भले ही कैसे हुई हो लेकिन धरती किसी एक की नहीं है। पंछी, मानव, पशु, नदी, पर्वत, समंदर आदि की इसमें बराबर की हिस्सेदारी है। यह और बात है कि इस हिस्सेदारी में मानव जाति ने अपनी बुद्धि से बड़ी-बड़ी दीवारे खड़ी कर दी हैं।
वजूद - अस्तित्व
हिस्सेदारी - अपने- अपने हिस्से पर अधिकार
दुनिया कैसे अस्तित्व में आई? पहले यह दुनिया क्या थी? किस बिन्दु से दुनिया के बनने की यात्रा शुरू हुई? इन सभी प्रश्नों के उत्तर विज्ञान अपनी तरह से देता है और सभी जितने भी धार्मिक ग्रंथ हैं वो अपनी-अपनी तरह से देते हैं। इन प्रश्नों के सही उत्तर किसी को पता चले या न चले लेकिन ये बात सही है कि ये धरती किसी एक की नहीं है। जितने भी जीवधारी इस धरती पर रहते हैं जैसे पंछी, मानव, पशु, नदी, पर्वत, समंदर - इन सभी का धरती पर बराबर का अधिकार है। परन्तु ये अलग बात है की अपने आप को बुद्धिमान बताने वाला मनुष्य धरती को अपनी निजि जायदाद समझ कर दूसरों के लिए बड़ी- बड़ी दीवारे खड़ी कर रहा है।
पहले पूरा संसार एक परिवार की समान था अब टुकड़ों में बँटकर एक-दूसरे से दूर हो चूका है। पहले बड़े-बड़े दालानों-आँगनों में सब मिल-जुलकर रहते थे अब छोटे-छोटे डिब्बे जैसे घरों में जीवन सिमटने लगा है। बढ़ती हुई आबादियों ने समंदर के पीछे सरकाना शुरू कर दिया है, पेड़ों को रास्तों से हटाना शुरू कर दिया है , फैलते हुए प्रदुषण ने पंछियों को बस्तियों से भगाना शुरू कर दिया है। बारूदों की विनाशलीलायों ने वातावरण को सताना शुरू कर दिया। अब गरमी में ज्यादा गरमी, बेवक्त की बरसातें, ज़लज़ले, सैलाब, तूफ़ान, और नित नए रोग, मानव और प्रकृति के इसी असंतुलन के प्रमाण हैं। नेचर की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। नेचर के गुस्से का एक नमूना कुछ साल पहले बंबई (मुंबई ) में देखने को मिला था और यह नमूना इतना डरावना था कि बम्बई निवासी डरकर अपने-अपने पूजा-स्थल में अपने खुदाओं से प्रार्थना करने लगे थे।
दालान - बरामदा
सिमटने - संकुचित /सिकुड़ना
सरकाना - धकेलना
बेवक्त - जिसका कोई समय न हो
ज़लज़ले - भूकंप
नेचर – प्रकृति
(यहाँ पर लेखक बढ़ती हुई आबादी के कारण होने वाले प्राकृतिक बदलावों का वर्णन किया है)
लेखक कहता है कि जब पृथ्वी अस्तित्व में आई थी, उस समय पूरा संसार एक परिवार की तरह रहा करता था लेकिन अब इसके टुकड़ें हो गए हैं और सभी एक-दूसरे से दूर हो गए हैं। पहले सभी बड़े-बड़े बरामदों और आंगनों में मिल-जुलकर रहा करते थे परन्तु आज के समय में सभी का जीवन छोटे-छोटे डिब्बे जैसे घरों में सिकुड़ने लगा है।
जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे समुद्र अपनी जगह से पीछे हटने लगा है, लोगों ने पेड़ों को काट कर रास्ते बनाना शुरू कर दिया है। प्रदुषण इतना अधिक फैल रहा है कि उससे परेशान हो कर पंछी बस्तियों को छोड़ कर भाग रहे हैं। बारूद से होने वाली मुसीबतों ने सभी को परेशान कर रखा है। वातावरण में इतना अधिक बदलाव हो गया है कि गर्मी में बहुत अधिक गर्मी पड़ती है, बरसात का कोई निश्चित समय नहीं रह गया है, भूकम्प, सैलाब, तूफ़ान और रोज कोई न कोई नई बीमारियाँ न जाने और क्या-क्या ,ये सब मानव द्वारा प्रकृति के साथ किये गए छेड़-छाड़ का नतीजा है। प्रकृति एक सीमा तक ही सहन कर सकती है। प्रकृति को जब गुस्सा आता है तो क्या होता है इसका एक नमूना कुछ साल पहले मुंबई में आई सुनामी के रूप में देख ही चुके हैं। ये नमूना इतना डरावना था कि मुंबई के निवासी डर कर अपने-अपने देवी-देवताओं से उस मुसीबत से बचाने के लिए प्रार्थना करने लगे थे।
कई सालों से बड़े-बड़े बिल्डर समंदर को पीछे धकेल कर उसकी जमीन को हथिया रहे थे। बेचारा समंदर लगातार सिमटता जा रहा था। पहले उसने अपनी फैली हुई टाँगे समेटीं, थोड़ा सिमटकर बैठ गया। फिर जगह कम पड़ी तो उकड़ूं बैठ गया। फिर खड़ा हो गया.... जब खड़े रहने की जगह काम पड़ी तो उसे गुस्सा आ गया। जो जितना बड़ा होता है उसे उतना ही कम गुस्सा आता है। परन्तु आता है तो रोकना मुश्किल हो जाता है ,और यही हुआ, उसने एक रात अपनी लहरों पर दौड़ते हुए तीन जहाज़ों को उठा कर बच्चों की गेंद की तरह तीन दिशाओं में फेंक दिया। एक वर्ली के समंदर के किनारे पर आ कर गिरा। दूसरा बांद्रा के कार्टर रोड के सामने औंधे मुँह और तीसरा गेट-वे-ऑफ इंडिया पर टूटफूट कर सैलानियों का नजारा बना बावजूद कोशिश, वे फिर से चलने फिरने के काबिल नहीं हो सके।
हथियाना - कब्ज़ा करना
उकड़ूं - घुटने मोड़ कर बैठना
औंधे मुँह - मुँह के बल
काबिल - योग्य /लायक
(यहाँ लेखक ने प्रकृति के भयानक गुस्से का वर्णन किया है)
कई सालों से बड़े-बड़े मकानों को बनाने वाले बिल्डर मकान बनाने के लिए समुद्र को पीछे धकेल कर उसकी जमीन पर कब्ज़ा कर रहे थे। बेचारा समुद्र लगातार सिकुड़ता जा रहा था। पहले तो समुद्र ने अपनी फैली हुई टांगों को इकठ्ठा किया और सिकुड़ कर बैठ गया। फिर भी बिल्डर नहीं माने तो समुद्र जगह कम होने के कारण घुटने मोड़ कर बैठ गया। अब भी बिल्डर नहीं माने तो समुद्र खड़ा हो गया..... इतनी जगह देने पर भी जब बिल्डर नहीं माने तो समुद्र के पास खड़े रहने की जगह भी कम पड़ने लगी और समुद्र को गुस्सा आ गया। कहा जाता है कि जो जितना बड़ा होता है उसको गुस्सा उतना ही कम आता है परन्तु जब आता है तो उनके गुस्से को कोई शांत नहीं कर सकता है।
समुद्र के साथ भी वही हुआ - जब समुद्र को गुस्सा आया तो एक रात वह अपनी लहरों के ऊपर दौड़ता हुआ आया और तीन जहाज़ों को ऐसे उठा कर तीन दिशाओं में फेंक दिया जैसे कोई किसी बच्चे की गेंद को उठा कर फेंकता है। एक को वर्ली के समुद्र के किनारे फेंका तो दूसरे को बांद्रा के कार्टर रोड के सामने मुँह के बल गिरा दिया और तीसरे को गेट-वे-ऑफ इंडिया के पास पटक दिया जो अब घूमने आये लोगों का मनोरंजन का साधन बना हुआ है। समुद्र ने तीनों को इस तरह फेंका की कोशिश करने पर भी उन्हें चलने लायक नहीं बनाया जा सका।
मेरी माँ कहती थी, सूरज ढले आँगन के पेड़ों से पत्ते मत तोड़ो, पेड़ रोएँगे। दिया-बत्ती के वक्त फूलों को मत तोड़ो, फूल बद्दुआ देते हैं। दरिया पर जाओ तो उसे सलाम किया करो, वह खुश होता है। कबूतरों को मत सताया करो, वो हज़रत मुहम्मद के अज़ीज़ हैं। उन्होंने उन्हें अपनी मज़ार के नीले गुम्बद पर घोंसले बनाने की इज़ाज़त दे रखी है। मुर्गे को परेशान नहीं किया करो, वह मुल्ला जी से पहले मोहल्ले में अज़ान देकर सबको सवेरे जगाता है -
सब की पूजा एक-सी, अलग-अलग है रीत।
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत।।
बद्दुआ - श्राप
दरिया - नदी
सलाम - नमस्कार
अज़ीज़ - प्यारा
मज़ार - दरगाह
गुम्बद - गोलकार शिखर
इज़ाज़त – आज्ञा
(यहाँ लेखक बचपन में दी गई अपनी माँ की सीख का वर्णन कर रहा है)
लेखक कहता है कि बचपन में उनकी माँ हमेशा कहती थी कि जब भी सूरज ढले अर्थात शाम के समय पेड़ों से पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए क्योंकि उस समय यदि पत्ते तोड़ोगे तो पेड़ रोते हैं। दिया-बत्ती के समय अर्थात पूजा के समय फूलों को नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि उस समय फूलों को तोड़ने पर फूल श्राप देते हैं। नदी पर जाओ तो उसे नमस्कार करनी चाहिए वह खुश हो जाती है। कभी भी कबूतरों को परेशान नहीं करना चाहिए क्योंकि कबूतर हज़रत मुहम्मद को बहुत प्यारे हैं। हज़रत मुहम्मद ने कबूतरों को अपनी दरगाह के गोलकार शिखर पर रहने की इज़ाज़त दी हुई है। मुर्गों को भी कभी परेशान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मुल्ला जी से पहले ही पूरे मोहल्ले को बांग दे कर जगाता है
सबकी पूजा एक सी अर्थात चाहे हिंदु हो या मुस्लिम या फिर सीख हो या ईसाई । सभी एक ही ईश्वर का गुणगान करते हैं।केवल तरीका अलग होता है।कोई मंदिर,तो कोई मस्जिद,कोई गिरजा तो कोई गुरुद्वारे जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रीत अलग है।उसी प्रकार मौलवी मस्जिद में जाकर लोगों को अलल्ह की इबादत सुनाकर प्रसन्न करता है वैसे ही कोयल बागों में,पेड़ों में बैठकर अपने मधुर बोल से सबको प्रसन्न करती है।
ग्वालियर में हमारा एक मकान था, उस मकान के दालान में दो रोशनदान थे। उसमें कबूतर के एक जोड़े ने घोंसला बना लिया था। एक बार बिल्ली ने उचककर दो में से एक अण्डा तोड़ दिया। मेरी माँ ने देखा तो उसे दुःख हुआ। उसने स्टूल पर चढ़ कर दूसरे अंडे को बचाने की कोशिश की। लेकिन इस कोशिश में दूसरा अंडा उसी के हाथ से गिरकर टूट गया। कबूतर परेशानी से इधर-उधर फड़फड़ा रहे थे। उनकी आँखों में दुःख देख कर मेरी माँ की आँखों में आँसू आ गए। इस गुनाह को खुदा से मुआफ़ कराने के लिए उसने पुरे दिन रोज़ा रखा। दिन भर कुछ खाया पिया नहीं। सिर्फ़ रोती रही और बार बार नमाज़ पढ़-पढ़कर खुदा से इस गलती को मुआफ़ करने की दुआ माँगती रही।
दालान - बरामदा
उचककर - उछलकर
गुनाह - पाप
रोज़ा - उपवास
दुआ – प्रार्थना
(यहाँ लेखक अपने जीवन की एक घटना का वर्णन कर रहा है)
ग्वालियर में लेखक का एक मकान था, उस मकान के बरामदे में दो रोशनदान थे। उन रोशनदानों में कबूतर के एक जोड़े ने अपना घोंसला बना रखा था। एक बार बिल्ली ने उछलकर उस घोंसले के दो अण्डों में से एक अंडे को गिरा दिया जिसके कारण वो अंडा टूट गया। जब लेखक की माँ ने ये सब देखा तो उसे बहुत दुःख हुआ। लेखक की माँ ने स्टूल पर चढ़ कर दूसरे अंडे को बचाने की कोशिश की। परन्तु इस कोशिश में दूसरा अंडा लेखक की माँ के हाथ से छूट गया और टूट गया। ये सब देख कर कबूतरों का जोड़ा परेशान हो कर इधर-उधर फड़फड़ाने लगा। कबूतरों की आँखों में उनके बच्चों से बिछुड़ने का दुःख देख कर लेखक की माँ की आँखों में आँसू आ गए। इस पाप को खुदा से माफ़ कराने के लिए लेखक की माँ ने पुरे दिन का उपवास रखा। उसने पुरे दिन न तो कुछ खाया और न ही कुछ पिया। वह सिर्फ रो रही थी और बार-बार नमाज़ पढ़-पढ़कर खुदा से अपने द्वारा किये गए पाप को माफ़ करने की प्रार्थना कर रही थी।
ग्वालियर से बंबई की दूरी ने संसार को काफी कुछ बदल दिया है। वर्सोवा में जहाँ आज मेरा घर है, पहले यहाँ दूर तक जंगल था। पेड़ थे, परिंदे थे और दूसरे जानवर थे। अब यहाँ समंदर के किनारे लम्बी-चौड़ी बस्ती बन गई है। इस बस्ती ने न जाने कितने परिंदों-चरिन्दों से उनका घर छीन लिया है। इनमें से कुछ शहर छोड़ कर चले गए हैं। जो नहीं जा सके हैं उन्होंने यहाँ-वहाँ डेरा दाल लिया है। इनमें से दो कबूतरों ने मेरे फ्लैट के एक मचान में घोंसला बना लिया है। बच्चे अभी छोटे हैं।
उनके खिलाने-पिलाने की जिम्मेवारी अभी बड़े कबूतरों की है। वे दिन में कई-कई बार आते-जाते हैं। और क्यों न आए-जाए उनका भी घर है। लेकिन उनके आने-जाने से हमें परेशानी भी होती है। वे कभी किसी चीज़ को गिराकर तोड़ देते हैं। कभी मेरी लाइब्रेरी में घुस कर कबीर या मिर्ज़ा ग़ालिब को सताने लगते हैं।
परिंदे - पक्षी
बस्ती - गाँव
डेरा - अस्थाई घर
मचान - बाँस आदि की सहायता से बनाया गया ऊँचा स्थान /मंच
लेखक कहता है कि ग्वालियर से बंबई के बीच समय के साथ काफी बदलाव हुए हैं। वर्सोवा में जहाँ लेखक का घर है, वहाँ लेखक के अनुसार किसी समय में दूर तक जंगल ही जंगल था। पेड़-पौधे थे, पशु-पक्षी थे और भी न जाने कितने जानवर थे। अब तो यहाँ समुद्र के किनारे केवल लम्बे-चौड़े गाँव बस गए हैं। इन गाँव ने न जाने कितने पशु-पक्षियों से उनका घर छीन लिया है। इन पशु-पक्षियों में से कुछ तो शहर को छोड़ कर चले गए हैं और जो नहीं जा सके उन्होंने यहीं कहीं पर अस्थाई घर बना लिए हैं। अस्थाई इसलिए क्योंकि कब कौन उनका घर तोड़े कर चला जाये कोई नहीं जनता। इन में से ही दो कबूतरों ने लेखक के फ्लैट में एक ऊँचे स्थान पर अपना घोंसला बना रखा है। उनके बच्चे अभी छोटे हैं। उनके पालन-पोषण की जिम्मेवारी उन बड़े कबूतरों की थी। बड़े कबूतर दिन में बहुत बार उन छोटे कबूतरों को खाना खिलाने आते जाते रहते थे। और आए-जाए क्यों न यहाँ उनका भी तो घर था। लेकिन उनके आने-जाने के कारण लेखक और लेखक के परिवार को बहुत परेशानी होती थी। कभी कबूतर किसी चीज़ से टकरा जाते थे और चीज़ों को गिराकर तोड़ देते थे। कभी लेखक की लाइब्रेरी में घुसकर कबीर और मिर्ज़ा ग़ालिब की पुस्तकों को गिरा देते थे।
इस रोज़-रोज़ की परेशानी से तंग आ कर मेरी पत्नी ने उस जगह जहाँ उनका आशियाना था, एक जाली लगा दी है, उनके बच्चों को दूसरी जगह कर दिया है। उनके आने की खिड़की को भी बंद किया जाने लगा है।
खिड़की के बाहर अब दोनों कबूतर रात-भर खामोश और उदास बैठे रहते हैं। मगर अब न सोलोमन है जो उनकी जुबान को समझ कर उनका दुःख बाँटे, न मेरी माँ है, जो उनके दुःख में सारी रात नमाजो में काटे -
नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम।
सूरज ठेकेदार-सा, सबको बाँटे काम।।
आशियाना - घर
खामोश - चुप-चाप
(यहाँ लेखक समय के साथ आए व्यक्तियों के व्यवहार का वर्णन कर रहा है)
लेखक कहता है कि कबूतरों के बार-बार आने-जाने और चीज़ों को तोड़ने से परेशान हो कर लेखक की पत्नी ने जहाँ कबूतरों का घर था वहाँ जाली लगा दी थी, कबूतरों के बच्चों को भी वहाँ से हटा दिया था। जहाँ से कबूतर आते-जाते थे उस खिड़की को भी बंद किया जाने लगा था। अब दोनों कबूतर खिड़की के बाहर रात-भर चुप-चाप और दुखी बैठे रहते थे। मगर अब न तो सोलोमेन है जो उन कबूतरों की भाषा को समझ कर उनका दुःख दूर करे और न ही लेखक की माँ है जो उन कबूतरों के दुःख को देख कर रात भर प्रार्थना करती रहे।
अर्थ यह हुआ कि समय के साथ-साथ व्यक्तियों की भावनाओं में बहुत अंतर आ गया है।
नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम।
सूरज ठेकेदार-सा, सबको बाँटे काम।।
इन पंक्तियों के द्वारा लेखक कहना चाहता है कि जिस तरह नदियाँ बिना किसी भेदभाव के सभी खेतों को अपना पानी देती है और तोता जिस तरह से किसी भी आम के बगीचे से आम खाने पहुँच जाता है अर्थात उसे कोई फर्क नहीं पड़ता की आम का बगीचा किस जाति के व्यक्ति ने लगाया है। उसी प्रकार सूरज भी बिना किसी भेदभाव के सभी को जागकर काम करने के लिए प्रेरित करता है। उसी तरह हमें भी नदी और सूरज की तरह दुसरो के हित के कार्य करने चाहिए और तोते की तरह सभी को सामान समझना चाहिए तभी संसार के सभी जीवधारी प्रसन्न और सुखी रह सकते हैं
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (25-30 शब्दों में) दीजिए -
प्रश्न 1 - अरब में लशकर को नूह के नाम से क्यों याद करते हैं ?
उत्तर- अरब में लशकर को नूह के नाम से इसलिए याद करते हैं क्योंकि वे हमेशा रोते रहते थे अर्थात दूसरों के दुःख में दुखी रहते थे। नूह को ईश्वर का सन्देश वाहक भी कहा जाता है।
प्रश्न 2 - लेखक की माँ किस समय पेड़ों के पत्ते तोड़ने के लिए मना करती थी और क्यों ?
उत्तर - लेखक की माँ कहती थी कि जब भी सूरज ढले अर्थात शाम के समय पेड़ों से पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए क्योंकि उस समय यदि पत्ते तोड़ोगे तो पेड़ रोते हैं।
प्रश्न 3 - प्रकृति में आए असंतुलन का क्या परिणाम हुआ ?
उत्तर -प्रकृति में आए असंतुलन का बहुत अधिक भयानक परिणाम हुआ, गर्मी में बहुत अधिक गर्मी पड़ती है, बरसात का कोई निश्चित समय नहीं रह गया है, भूकम्प, सैलाब, तूफ़ान और रोज कोई न कोई नई बीमारियाँ जन्म ले लेती है और मानव का जीवन बहुत अधिक कठिन हो गया है।
प्रश्न 4 - लेखक की माँ ने पुरे दिन का रोज़ा क्यों रखा ?
उत्तर - बिल्ली ने जब कबूतर के एक अंडे को तोड़ दिया तो लेखक की माँ ने स्टूल पर चढ़ कर दूसरे अंडे को बचाने की कोशिश की। परन्तु इस कोशिश में दूसरा अंडा लेखक की माँ के हाथ से छूट गया और टूट गया। ये सब देख कर कबूतरों का जोड़ा परेशान हो कर इधर-उधर फड़फड़ाने लगा। कबूतरों की आँखों में उनके बच्चों से बिछुड़ने का दुःख देख कर लेखक की माँ की आँखों में आँसू आ गए। इस पाप को खुदा से माफ़ कराने के लिए लेखक की माँ ने पुरे दिन का उपवास रखा।
प्रश्न 5 - लेखक ने ग्वालियर से बम्बई तक किन बदलावों को महसूस किया? पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - लेखक कहता है कि ग्वालियर से बंबई के बीच समय के साथ काफी बदलाव हुए हैं। वर्सोवा में जहाँ लेखक का घर है, वहाँ लेखक के अनुसार किसी समय में दूर तक जंगल ही जंगल था। पेड़-पौधे थे, पशु-पक्षी थे और भी न जाने कितने जानवर थे। अब तो यहाँ समुद्र के किनारे केवल लम्बे-चौड़े गाँव बस गए हैं। इन गाँव ने न जाने कितने पशु-पक्षियों से उनका घर छीन लिया है। इन पशु-पक्षियों में से कुछ तो शहर को छोड़ कर चले गए हैं और जो नहीं जा सके उन्होंने यहीं कहीं पर भी अस्थाई घर बना लिए हैं। अस्थाई इसलिए क्योंकि कब कौन उनका घर तोड़े कर चला जाये कोई नहीं जनता।
प्रश्न 6 - 'डेरा ढलने ' से आप क्या समझते हैं?स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - ‘डेरा’ अर्थात अस्थाई घर। अस्थाई इसलिए क्योंकि कब कौन तोड़ कर चला जाये कोई नहीं जनता। बड़ी-बड़ी इम्मारतें बन जाने के कारण कई पक्षी बेघर हो गए और जब उन्हें अपना घोंसला बनाने की जगह नहीं मिली तो उन्होंने इन इमारतों में अपना डेरा डाल लिया।
प्रश्न 7 - शेख अयाज़ के पिता अपनी बाजू पर काला च्योंटा रेंगता देख भोजन छोड़ कर क्यों उठ खड़े हुए?
उत्तर - एक दिन शेख अयाज़ के पिता कुँए से नहाकर लौटे। उनकी माँ ने भोजन परोसा। अभी उनके पिता ने रोटी का पहला टुकड़ा तोड़ा ही था कि उनकी नज़र उनके बाजू पर धीरे-धीरे चलते हुए एक काले च्योंटे पर पड़ी। जैसे ही उन्होंने कीड़े को देखा वे भोजन छोड़ कर खड़े हो गए। उनको खड़ा देख कर शेख अयाज़ा की माँ ने पूछा कि क्या बात है? क्या भोजन अच्छा नहीं लगा? इस पर शेख अयाज़ के पिता ने जवाब दिया कि ऐसी कोई बात नहीं है। उन्होंने एक घर वाले को बेघर कर दिया है वे उसी को उसके घर यानि कुँए के पास छोड़ने जा रहें हैं।
(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में ) दीजिए
प्रश्न 1 - बढ़ती हुई आबादी का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर - जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे समुद्र अपनी जगह से पीछे हटने लगा है, लोगों ने पेड़ों को काट कर रास्ते बनाना शुरू कर दिया है। प्रदुषण इतना अधिक फैल रहा है कि उससे परेशान हो कर पंछी बस्तियों को छोड़ कर भाग रहे हैं। बारूद से होने वाली मुसीबतों ने सभी को परेशान कर रखा है। वातावरण में इतना अधिक बदलाव हो गया है कि गर्मी में बहुत अधिक गर्मी पड़ती है, बरसात का कोई निश्चित समय नहीं रह गया है, भूकम्प, सैलाब, तूफ़ान और रोज कोई न कोई नई बीमारियाँ न जाने और क्या-क्या ,ये सब मानव द्वारा किये गए प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ का नतीजा है। इन सभी के कारण मानव जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। मानव के जीवन पर इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है।
प्रश्न 2 - लेखक की पत्नी को खिड़की पर जाली क्यों लगानी पड़ी ?
उत्तर - दो कबूतरों ने लेखक के फ्लैट में एक ऊँचे स्थान पर अपना घोंसला बना रखा है। उनके बच्चे अभी छोटे हैं। उनके पालन-पोषण की जिम्मेवारी उन बड़े कबूतरों की थी। बड़े कबूतर दिन में बहुत बार उन छोटे कबूतरों को खाना खिलाने आते जाते रहते थे। लेकिन उनके आने-जाने के कारण लेखक और लेखक के परिवार को बहुत परेशानी होती थी। कभी कबूतर किसी चीज़ से टकरा जाते थे और चीज़ों को गिराकर तोड़ देते थे। कबूतरों के बार-बार आने-जाने और चीज़ों को तोड़ने से परेशान हो कर लेखक की पत्नी ने जहाँ कबूतरों का घर था वहाँ जाली लगा थी, कबूतरों के बच्चों को भी वहाँ से हटा दिया था। जहाँ से कबूतर आते-जाते थे उस खिड़की को भी बंद किया जाने लगा था।
प्रश्न 3 - समुद्र के गुस्से की क्या वजह थी ? उसने अपना गुस्सा कैसे निकाला ?
उत्तर - कई सालों से बड़े-बड़े मकानों को बनाने वाले बिल्डर मकान बनाने के लिए समुद्र को पीछे धकेल कर उसकी जमीन पर कब्ज़ा कर रहे थे। बेचारा समुद्र लगातार सिकुड़ता जा रहा था। पहले तो समुद्र ने अपनी फैली हुई टांगों को इकठ्ठा किया और सिकुड़ कर बैठ गया। फिर जगह कम होने के कारण घुटने मोड़ कर बैठ गया। अब भी बिल्डर नहीं माने तो समुद्र खड़ा हो गया.... जब समुद्र के पास खड़े रहने की जगह भी कम पड़ने लगी और समुद्र को गुस्सा आ गया। कहा जाता है कि जो जितना बड़ा होता है उसको गुस्सा उतना ही कम आता है परन्तु जब आता है तो उनके गुस्से को कोई शांत नहीं कर सकता। समुद्र के साथ भी वही हुआ जब समुद्र को गुस्सा आया तो एक रात वह अपनी लहरों के ऊपर दौड़ता हुआ आया और तीन जहाज़ों को ऐसे उठा कर तीन दिशाओं में फेंक दिया जैसे कोई किसी बच्चे की गेंद को उठा कर फेंकता है। एक को वर्ली के समुद्र के किनारे फेंका तो दूसरे को बांद्रा के कार्टर रोड के सामने मुँह के बल गिरा दिया और तीसरे को गेट-वे-ऑफ इंडिया के पास पटक दिया जो अब घूमने आये लोगों का मनोरंजन का साधन बना हुआ है। समुद्र ने तीनों को इस तरह फेंका की कोशिश करने पर भी उन्हें चलने लायक नहीं बनाया जा सका।
प्रश्न 4 -मिट्टी से मिट्टी मिले,
खो के सभी निशान।
किसमें कितना कौन है,
कैसे हो पहचान।।
इन पंक्तियों के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है ?स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - लेखक इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहता है कि उस ईश्वर ने हम सभी प्राणधारियों को एक ही मिट्टी से बनाया है। यदि सभी से प्राण निकाल कर वापिस मिट्टी बना दिया जाए तो किसी का कोई निशान नहीं रहेगा जिससे पहचाना जा सके कि कौन सी मिट्टी किस प्राणी की है। भाव यह हुआ की लेखक कहना चाहता है व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व पर घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कोई नहीं जानता की उसमें कितनी मनुष्यता है और कितनी पशुता।
(ग) निम्नलिखित के आशय स्पष्ट कीजिए
(1) प्रकृति की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। प्रकृति के गुस्से का एक नमूना कुछ साल पहले बंबई (मुंबई ) में देखने को मिला था।
उत्तर -प्रकृति एक सीमा तक ही सहन कर सकती है। कहा जाता है कि जो जितना बड़ा होता है उसको गुस्सा उतना ही कम आता है परन्तु जब आता है तो उनके गुस्से को कोई शांत नहीं कर सकता। प्रकृति को भी जब गुस्सा आता है तो क्या होता है इसका एक नमूना कुछ साल पहले मुंबई में आई सुनामी के रूप में देख ही चुके हैं। ये नमूना इतना डरावना था कि मुंबई के निवासी डर कर अपने-अपने देवी-देवताओं से उस मुसीबत से बचाने के लिए प्रार्थना करने लगे थे।
(2) जो जितना बड़ा होता है उसको गुस्सा उतना ही कम आता है।
>उत्तर -कई सालों से बड़े-बड़े मकानों को बनाने वाले बिल्डर मकान बनाने के लिए समुद्र को पीछे धकेल कर उसकी जमीन पर कब्ज़ा कर रहे थे। जब समुद्र के पास खड़े रहने की जगह भी कम पड़ने लगी और समुद्र को गुस्सा आ गया। कहा जाता है कि जो जितना बड़ा होता है उसको गुस्सा उतना ही कम आता है परन्तु जब आता है तो उनके गुस्से को कोई शांत नहीं कर सकता। समुद्र के साथ भी वही हुआ जब समुद्र को गुस्सा आया तो एक रात वह अपनी लहरों के ऊपर दौड़ता हुआ आया और तीन जहाज़ों को ऐसे उठा कर तीन दिशाओं में फेंक दिया जैसे कोई किसी बच्चे की गेंद को उठा कर फेंकता है।
(3) इस बस्ती ने न जाने कितने परिंदों-चरिन्दों से उनका घर छीन लिया है। इनमें से कुछ शहर छोड़ कर चले गए हैं। जो नहीं जा सके हैं उन्होंने यहाँ-वहाँ डेरा दाल लिया है।
उत्तर - लेखक कहता है कि ग्वालियर से बंबई के बीच किसी समय में दूर तक जंगल ही जंगल थे। पेड़-पौधे थे, पशु-पक्षी थे और भी न जाने कितने जानवर थे। अब तो यहाँ समुद्र के किनारे केवल लम्बे-चौड़े गाँव बस गए हैं। इन गाँव ने न जाने कितने पशु-पक्षियों से उनका घर छीन लिया है। इन पशु-पक्षियों में से कुछ तो शहर को छोड़ कर चले गए हैं और जो नहीं जा सके उन्होंने यहीं कहीं पर भी अस्थाई घर बना लिए हैं। अस्थाई इसलिए क्योंकि कब कौन उनका घर तोड़े कर चला जाये कोई नहीं जनता।
(4) शेख अयाज़ के पिता बोले,'नहीं यह बात नहीं है। मैंने एक घर वाले को बेघर कर दिया है। उस बेघर को कुँए पर उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ।' इन पंक्तियों में छिपी हुई उनकी भावना को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - शेख अयाज़ के पिता बोले,'नहीं यह बात नहीं है। मैंने एक घर वाले को बेघर कर दिया है। उस बेघर को कुँए पर उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ।' इन पंक्तियों में शेख अयाज़ के पिता की छिपी हुई भावना यह थी कि वे पशु-पक्षियों की भावना को समझते थे। वे अपना खाना छोड़ कर केवल एक काले च्योंटे को उसके घर कुँए पर छोड़ने चल पड़े। उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो किसी को भी तकलीफ नहीं देना चाहते थे।
Thx a lot sir
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