जंतर-मंतर

लेख कुछ ज्यादा ही लम्बा है।सेव करके रख लें  बाद में पढ़ें!!!!!!!!

अभी पिछले दिनों तमिलनाडु के किसानों द्वारा जंतर-मंतर पर किये प्रदर्शन ने पूरे देश की नींद हराम कर दी थी बस एक हमारे प्रधान सेवक जी को छोड़कर।किसानों ने भूख हड़ताल से लेकर नग्न प्रदर्शन से लेकर मूत्रपान तक किया लेकिन न तो हमारे केंद्र सरकार की नींद टूटी और न ही तमिलनाडु की  राज्य सरकार ने ही करवट बदली।ऐसे समय में जब सभी राजनैतिक दल तू तू-मै मै में लगे हुए थे और मीडिया  बिना किसी  मुद्दे के प्राइम टाइम की बहस में अनवरत गलाफाड़ प्रतियोगिता का आयोजन करवा रही थी केवल एक संगठन स्वराज अभियान किसानों की समस्याओं को लेकर सचेत हुआ।योगेंद्र यादव की अध्यक्षता में चलने वाले स्वराज अभियान ने तमिलनाडु में 'किसान अधिकार यात्रा' का आयोजन किया।मुझे भी इस यात्रा में भागीदारी का करने का सौभाग्य मिला।वहाँ पहुंच कर तमिलनाडु की परिस्थितियों को नजदीक से जाना-समझा।
दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रांत में इस समय सूखे की स्थिति भयावह है। वहां दक्षिण-पश्चिमी मानसून और पूर्वोत्तर मानसून की लगभग 60 फीसदी तक की कमी के कारण सूखे की समस्या गंभीर है।
प्रांत के ग्रामीण किसान अनियमित बारिश और पानी की कमी के कारण अपनी फसलों पर सिंचाई नहीं कर पा रहे हैं। कुछ इस विकट संकट की स्थिति के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।
तमिलनाडु में सूखे की समस्या नई नहीं है। तमिल साहित्य भी इंगित करता है कि पंडियन साम्राज्य के दौरान लगभग 12 वर्षों तक यहां अकाल जैसे हालात प्रबल थे।
कभी उपजाऊ भूमि रहा डेल्टा क्षेत्र ने जंगल और कृषि के विकास के लिए प्रोत्साहित किया था। घने जंगल के आच्छादन से बाढ़ को रोकने, पहाड़ी ढलानों पर पानी को रोके रखने के लिए और सहायक नदियों द्वारा भूजल को रिचार्ज करने में सहायता मिलती है। हालांकि अब नदी घाटियों पर वर्षों से हो रही वनों की कटाई से वर्षा में कमी हो रही है।
सरकार खुद भी इन वनों की कटाई को रोकने में फेल रही जो अब काफी महंगा साबित हो चुका है।

एक अनुमान के तहत तमिलनाडु के करीब 50 फीसदी जिले सूखा प्रवण क्षेत्र हैं। सिंचाई के लिए बने टैंक, तालाब, झरने और दूसरे माध्यम के मलबों को कई वर्षों से साफ तक नहीं किया गया है।
उदाहरण के लिए कडालोर जिले में अकेले 3500 से ज्यादा सिंचाई टैंक हैं और उनमें से कई सूख चुके हैं।
पिछले कई समय से सूखे के अनुभव की वजह से तमिलनाडु सरकार को अब वाकई वर्तमान स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश , हम अब तक सूखे को रोकने के लिए रणनीतियां ही ढूंढ रहे हैं, उन पर चर्चा कर रहे हैं और उन्हें देख रहे हैं।
कई किसान निजी धन उधारकर्ताओं के कर्ज के जाल में फंसे हैं। ब्याज दर भी 25 फीसदी से शुरू होकर 60 फीसदी तक ऊंची होती जा रही है।
कई किसानों की आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह मानसून का फेल होना होता है, इसके बाद ऋण का बोझ, व्यक्तिगत मामले और पारिवारिक समस्याएं शामिल होती हैं।
उन पर निजी उधारकर्ताओं की शरण में जाने के लिए दवाब बनाया जाता है क्योंकि खेती से आने वाली आय से उनके परिवार की जरूरतें जैसे बच्चों की शिक्षा, बीमारी के इलाज व शादी-ब्याह जैसे काम पूरे नहीं हो पाते।
जब फसल खराब होने लगती है, तो फसल हानि और क्षति के मूल्यांकन का मुआवजा भी समय पर नहीं मिल पाता है। फसल बीमा अब किसानों के लिए धोखा साबित हो चुका है।
पानी की कमी उत्पादकता को प्रभावित करती है। सूखे की स्थिति के दौरान भूजल की कमी सिंचाई में भयंकर समस्या उत्पन्न करती है। तमिलनाडु रेन शैडो एरिया में स्थित है जहां वार्षिक वर्षा 1100 से 1200 मिमी होती है जबकि वार्षिक वाष्पीकरण 2190 से 2930 मिमी तक होता है जो प्रत्येक सीजन पर सूरज की रोशनी के घंटे पर निर्भर करता है।
जबकि डेल्टा क्षेत्र में वार्षिक वर्षा काफी ज्यादा होती है फिर भी मुख्य फसलों के उत्पादन वाले महीनों में सिंचाई के लिए केवल 30 प्रतिशत ही जल प्राप्त हो पाता है। इस क्षेत्र की लगभग 65 फीसदी भूमि ही सिंचित रह पाती है। ऐसी स्थिति में भूजल संसाधन और बोरवेल पर निर्भरता काफी बढ़ जाती है।
राज्य में करीब 3.1 लाख बोरवेल और करीब 15.66 लाख खुले कुएं हैं जो भूजल निकालने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। पंप सेटों के उपयोग में भी इजाफा हो रहा है।
जहां-जहां सिंचाई के साधन बोरवेल और पंप मौजूद हैं वहां पैदावार अच्छी है लेकिन इन क्षेत्रों के छोटे किसानों को सिंचाई के लिए वर्षा और बांधों पर निर्भर रहना पड़ता है। लोगों को बोरवेल के बजाय खुले कुएं की खुदाई के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
इतने खराब हालात में भी न तो केंद्र सरकार चेत रही है और ना ही राज्य सरकार।राजनैतिक पार्टियों को तो राजनीति को मुद्दे से भटकाकर आपस में लड़ने से ही फुर्सत नही है।किसान और आम आदमी तो बस सरकार के लिए वोट बैंक मात्र हैं। इस यात्रा के दौरान सभी लोग नागपट्टिनम, थरवरूर, तंजावुर अरियलुर, पेरम्बल, करूर और त्रिची जैसे सूखाग्रस्त इलाक़ों में गए। तमिलनाडु में ऐसा सूखा 140 सालों के बाद आया है। किसान अधिकार यात्रा से यह सामने आया कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से खेती-किसानी और किसानों का संकट किस हद तक गहराता जा रहा है। संकट की इस घड़ी में भी केंद्र और राज्य सरकारें बहुत ही असंवेदनशील हैं।
यह स्पष्ट हो गया है कि केंद्र सरकार को तमिलनाडु में किसानों के संकट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और आज जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत है तो राज्य सरकार भी निर्बल और नासमझ है। इन दोनों सरकारों की नाकामी की वजह से किसान गहरे संकट में हैं।
ध्यान देने वाली बात है कि दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों के हिम्मती प्रदर्शन के बावजूद भी केंद्र सरकार किसानों के संकट के प्रति आँख मूँदे रही। उसके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। इसके पीछे केंद्र और राज्य सरकार  के बीच कमज़ोर रिश्ता भी एक कारण है। केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के एनडीआरएफ सहयोग राशि की माँग को  39,565 करोड़ रू से काट कर 1793.63 करोड़ रू कर दिया। यह राशि पिछले साल सूखा राहत के लिए महाराष्ट्र को दी गयी 3024 करोड़ रूपये से भी काफ़ी कम है। केंद्र सरकार ने तो सूखा के साल में ही मनरेगा के कार्यदिवस में भी 34% की कटौती की है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में तमिलनाडु अग्रणी राज्य रहा है और खाद्य सामग्री और अन्य कमोडिटीयों के पर्याप्त वितरण में हमेशा से अग्रणी रहा है। इस आलोक में यह बात खेद उत्पन्न करने वाली है कि राज्य में कुछ स्थानों पर चावल की आपूर्ति और सभी स्थानों पर चीनी, केरोसिन और दाल की आपूर्ति समयबद्ध और सुचारू रूप से नहीं हो रही है या फिर आपूर्ति पूर्णतयः बाधित है।
 यह बहुत ही दुःखद है कि राज्य सरकार MDM के दिशानिर्देश, सूखा मैनुअल एवं सुप्रीम कोर्ट के आदेश में आवश्यक होने के बावजूद भी बच्चों को गर्मी की छुट्टियों के दौरान MDM नहीं दे रही है। जबकि तमिलनाडु से कम सूखा प्रभावित राज्यों ने MDM का वितरण किया है।
मनरेगा में कार्य दिवसों की वृद्धि और समय से मजदूरी सूखा प्रभावित लोगों के लिए बहुत ही राहत देने वाला कार्य हो सकता था लेकिन यह दुःखद है कि इन क्षेत्रों में मनरेगा को ठीक से लागू नही किया गया।
यह कहते खेद हो रहा है कि इस सूखे के समय मे भी केंद्र सरकार ने मनरेगा में 'प्रति व्यक्ति दिनों' में 34% की भारी कटौती की है। अनेक स्थानों पर लोगों को नए जॉबकार्ड नहीं मिल रहे हैं। लोग काम की मांग कर रहे हैं लेकिन वह भी नहीं मिल रहा है। लोगों ने पुराने बकाया मजदूरी के ढेर से भुगतान की शिकायत भी की है।
इन सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जानवरों के लिए चारे और पेयजल की भारी कमी हुई है। चारे के मूल्य बढ़ने की वजह से पशुओं की बिक्री में वृद्धि हुई है। दुःखद स्थिति यह है कि पशुओं के मूल्य में सामान्य से तीन चौथाई तक की कमी आई है। जिसके परिणाम स्वरूप किसानों की आय और आर्थिक सुरक्षा में भारी गिरावट आई है। पशुओं की इस विपरीत स्थिति की पशु महामारी में परिवर्तित होने की भारी संभावना है।
प्रत्येक स्थान पर यह रिपोर्ट मिली कि 'चारा क्षति आयोग'(इनपुट सब्सिडी) असंतुलित, अपर्याप्त और पक्षपातपूर्ण है। ऐसा प्रतीत हुआ कि इस योजना में भारी अपारदर्शिता है।
तमिलनाडु में यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सरकारी और निजी बैंकों ने कितनी बुरी तरह लोन रिकवरी के लिए कार्य कर रही हैं जबकि एसबीआई, नाबार्ड और तमिलनाडु सरकार के निर्देशन में यह अनुचित है। एक ओर तो किसानों को राहत नहीं दी गयी है दूसरी ओर उन्हें लोन रिकवरी नोटिस भी लगातार दी जा रही है। वो भी ऐसे समय पर जब वो बुरी तरह से सूखे की मार झेल रहे हैं और उन्हें भविष्य में भी अंधकार दिखाई दे रहा है।

Comments

  1. Kya baat hai bhai Debuparsad aap to jansatta ke sthapit patrkar jaise lekh pel rahe hain. Bahut sahi.

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