फिर मैं मरूं- आराम से-रमाशंकर विद्रोही

रमाशंकर विद्रोही
विद्रोही की कविताएँ औऱ जीवन दोनों में उनका संघर्ष साफ दिखाई देता है।रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जन्मे तो सुल्तानपुर में थे लेकिन जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने जेएनयू की चहारदीवारी में ही गुजार दिया।
ऐसा कवि जिसकी यह ख्वाहिश थी कि वो बसन्त में ही मरे तथाकथित भगवान ने उसकी मौत के साथ भी अन्याय नहीं किया औऱ विद्रोही 8 दिसम्बर 2015 को यह दुनिया छोड़कर चले गए।जेएनयू के छात्रों के लिए विद्रोही व्यवस्था के खिलाफ उठती जनपक्षधर आवाज़ों के प्रतीक थे. विद्रोही अपनी कविताओं में जैसा विद्रोह रचते थे, उन्होंने उसी तरह विद्रोह करते हुए अंतिम सांस ली.

पढ़िए उनकी यह कविता-

‘मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा’

विद्रोही करीब दो दशकों तक जेएनयू परिसर में ही रहते रहे. शायद जेएनयू की विद्रोही हवा, परिवर्तनकामी आकांक्षा और उनकी हिंदी साहित्य पढ़ने की इच्छा ने उन्हें रोके रखा हो. लेकिन वे जब तक जिंदा रहे, ‘आसमान में धान बोते रहे’ और अंत में छात्रों के साथ संघर्ष करते हुए ही चले गए.


किसानों पर कही गई उनकी एक प्रसिद्ध कविता है-

मैं किसान हूँ

आसमान में धान बो रहा हूं

कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूं पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

विद्रोही ऐसे कवि थे जो आजीवन सिर्फ कविता ‘कहता’ रहे और सुनाता रहे. विद्रोही को कविता के लिए कभी कॉपी कलम की जरूरत नहीं पड़ी. वे कविताओं को अपने दिमाग में लिखते थे और छात्रों को सुनाते जाते थे. उनके साथी बताते हैं कि अन्य कवियों की तरह उन्होंने अपना उपनाम खुद नहीं रखा था. रमाशंकर यादव जब विद्रोह की कविताएं लिखने लगे तो उनके चाहने वालों ने उन्हें ‘विद्रोही’ कहा. विद्रोही को साथियों का दिया यह नाम पसंद आया.

विद्रोही सत्ता के चरित्र को बखूबी पहचानते थे.
उन्होंने लिखा कि-

हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत.
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है.

पत्नी के छोड़ देने के डर से रमाशंकर ने पढ़ना शुरू कर दिया. बीए किया, एलएलबी करने की कोशिश की लेकिन पैसे के अभाव में पूरी नहीं हो सकी. उन्होंने एक नौकरी की, जो उन्हें पसंद नहीं आई तो 1980 में 1980 में वे एमए करने जेएनयू आ गए. जेएनयू ने उन्हें आंदोलन में शरीक होने के जुर्म में छात्र नहीं रहने दिया. वे एक ऐसे विद्रोही, खानाबदोश, फक्कड़ और फटेहाल कवि में तब्दील हो गए, जिसकी जिंदगी में चंद खूबसूरत कविताएं रह गईं.…

और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियांरो

मन के गुलामों की भी हो सकती हैं औरबं

गाल के जुलाहों की भी या फिर

वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की

साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है

चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो

या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य

जिसका यही काम होता है कि

पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे

सागर तीरे इंसानों की हड्डियां बिखेरना.

विद्रोही को बेबीलोनिया से लेकर मेसोपोटामिया तक प्राचीन सभ्यताओं के मुहाने पर एक औरत की जली हुई लाश और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां मिलती हैं, जिसका सिलसिला अंतत: सीरिया के चट्टानों से लेकर बंगाल के मैदानों तक चला जाता है. वे इसके खिलाफ खड़े होकर कहते हैं:।विद्रोही लिखते हैं-

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी मां रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूंगा.

वे आंदोलनों के बीच रह कर कविता रचते थे, इसलिए उनकी कविताएं सीधे जनता से जुड़ी हैं. विद्रोह ही उनका आधार था. असल में उनका स्वभाव कबीर और नागार्जुन जैसा फक्कड़ था, सो कविताएं सीधा वार करती हैं. किसान, मजदूर, स्त्रियां सब उनके केंद्र में हैं. उनकी एक कविता देखिए।उनकी कविताओं का फलक बहुत व्यापक है-मोएंजोदड़ो, मेसोपोटामिया और स्पार्टा से होता हुआ क्लिंटन और बुश तक फैला हुआ. विद्रोही का सिर्फ एक कविता संग्रह नयी खेती प्रकाशित हुआ है क्योंकि वे मौखिक रूप से ही कविता सुनाते रहे और फक्कड़ जिंदगी जीते रहे.

अपनी एक कविता 'मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से...' में विद्रोही कहते हैं- 

मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है

मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है

 तुम मुझे बचाओ

मैं तुम्हारा कवि हूं.'

लेकिन हम उन्हें बचा नहीं पाए।



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