प्रकृति का मित्र-कोरोना
इतनी सुनहरी धूप, इतना खुला आसमान, नीला आसमान।आह!देखते रहो,आँखें ही नहीं भरतीं...!!!!!
बया को मार डाला, गिद्धों को मार डाला, न जाने और कितने तरह के पशु-पक्षी-पौधें और नदियाँ खत्म कर डालीं। कोरोना आज हम सबका-मनुष्यों का, भले ही शत्रु बनकर आया हो लेकिन इनका, इन पौधों, पक्षियों, नदियों और आसमान का तो दोस्त ही है।यह भी सच है कि नदियों का पानी भी स्वच्छ होने लगा है।भरी दोपहर में इतना नीला आसमान - अकल्पनीय !!! ऐसा तो केवल समुद्री टापुओं की तस्वीरों में देखने को मिलता था। चिड़ियाँ चहचहा रही हैं, तोते मस्त हैं, गिलहरी ख़ुशियाँ मना रही है, विलक्षण दृश्य है।जगह-जगह से प्रकृति के पुनरुत्थान की तस्वीरें ऐसे आ रही हैं गोया कोरोना प्रकृति द्वारा मनुष्य को दिया गया अभिशाप हो।
ये थी विकास की कीमत जो हम अदा कर रहे थे। सोचिये क्या कोई अपील, कोई पर्यावरण जागरूकता अभियान हमें इस कदर अनुशासित कर पाता कि हम इतने बड़े पैमाने पर वाहनों की आवाजाही पर ब्रेक लगा देते, बड़े-बड़े धुआँ उगलने वाले कारखानों को ठप्प कर देते। एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों ग्रेटा थोर्नबर्ग, हज़ारों अनुपम मिश्र भी इस लक्ष्य को हासिल ना करवा पाते। लेकिन आज मौत के डर ने, कोरोना संक्रमण के डर ने पूरे विश्व के धनपतियों को धरती, पर्यावरण, पशु-पक्षी-पौधों का शोषण करने से रोक दिया है।
हर वर्ष लगभग 40 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड जो हवाई जहाजों, रेलगाड़ियों, निजी-सार्वजनिक वाहनों, विशालकाय उद्योगों के माध्यम से पर्यावरण में घुल रही थी, पूरे विश्व में चल रहे लॉकडाउन के कारण उत्सर्जित नहीं हो पा रही है।कोरोना जाएगा तो क्या इसके जाने के बाद पूंजीपति लोग, राष्ट्रों की सरकारें नीले आसमान वाले इन दिनों को याद करेंगी और हवाओं में घुलने वाले इस जहर को सीमित करने की कोशिशें करेंगी, या फिर से हम और हमारी पीढ़ियाँ जहरीली हवाओं के साथ वैसे ही जीना शुरू कर देंगे जैसे कोरोना के पहले जीते थे।
लॉकडाउन हम मनुष्यों के लिए हानि का सबब है। किसी की धनपशुता में हानि का, किसी की रोजी-रोटी की हानि का।किन्तु प्रकृति के लिए यह पुनर्जीवन का काल है। वन्यजीव-शत्रु मनुष्य की आमदरफ्त कम हुई तो मृग नरेश समुद्र तट पर निकल आये अठखेलियाँ करने। अब ये जायेंगे और अपने शावकों के साथ लौटकर इसी तरह और आनन्द मनायेंगे।घर के सामने जो कभी-कभार एकाध चिड़िया दिखाई दे जाती थी अब देखिए झुण्ड के झुण्ड चिड़ियों के उड़ने का कैसा मनोहारी दृश्य है।हवा की दुरूस्तगी की आलम यह है कि जालंधर से हिमालय की श्रृंखलाएँ तक स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी हैं।सारे पशु, सारे पक्षी, सारे पेड़-पौधे खुशियाँ मना रहे हैं। धरती ख़ुशियाँ मना रही है, आकाश भी खुशियाँ मना रहा है।
मनुष्य की प्रगति का आतंक इन बेज़ुबानों के अस्तित्व के लिए उसी संकट का वाहक था जिसका कि कोरोना विषाणु हम मनुष्यों के लिए है।बस कुछ दिन और फिर बेचारे सब तड़प-तड़प जियेंगे और मरेंगे।कुछ भी हो जब हम दादे-नाने बनेंगे और अपने पौत्रों-पौत्रियों से कोरोना संक्रमण की ये भयावह स्मृतियाँ साझा करेंगे तब इस नीले आसमान और उसके नीचे अठखेलियाँ करती अद्भुत प्रकृति की यादें बरबस खिंची चली आएंगी।
कृष्ण मिश्र(मौसम वैज्ञानिक)
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