रूसी रूपवाद
रूसी रूपवाद
रूसी रूपवाद का प्रादुर्भाव रूस में हुआ। इसलिए इसे रूसी-रूपवाद भी कहा जाता है। साहित्यिक समीक्षा की इस प्रणाली से संबंद्ध लोगों में बोरिस इकेनबाम, विक्टर
श्केलोवस्की, रोमन जैकोब्सन, बोरिस तोयस्जेवस्की और तानिनोव उल्लेख्य हैं। इसके दो केंद्र थे- पीटर्सबर्ग और मास्को। पीटर्सबर्ग में इस संस्थान की स्थापना 1916 में हुई और मास्को में 1915 में। मास्को संस्थान की रुझान भाषिकी की ओर अधिक थी।
ऽरूपवाद ने 20 वीं शती के प्रथमार्ध में आन्दोलन का रूप ले लिया था। ऐसा माना जाता है कि रूस में 1919 में विक्टर श्केलोवस्की ने इस आन्दोलन का सूत्रपात किया था।
भारतीय आचार्यों और पाश्चात्य काव्य चिंतकों ने काव्य में वस्तु (कान्टेन्ट) और रूप (फॉर्म) दोनों में किसे अधिक महत्त्व दिया जाय, यह प्रश्न पर विचार किया है। वस्तुतः कलावादी भी प्रकरान्तर से रूपवाद के ही समर्थक रहे हैं।
सिद्धांत
रूपवाद को स्पष्ट करने के लिए वस्तु और रूप क्या है, इसे समझना आवश्यक है। काव्य में विचार, भावानुभूति, प्रवृत्ति और इच्छा आदि जिन्हें कवि व्यक्त करना चाहता है, वस्तु के रूप में स्वीकार किए जाते हैं और रूप वह पद्धति, शब्द संरचना या आवयविक संघटन है जिसके माध्यम से वस्तु को व्यक्त किया जाता है। जो विचारक काव्य में सामाजिक मूल्यों या जीवन यथार्थ को अधिक महत्त्व देते हैं, वे वस्तु को मुख्य मानते हैं। इसके विपरीत जो काव्य को पूर्णतः स्वायत्त मानते हैं, वे रूप को अधिक महत्त्व देते हैं।
श्केलोवस्की का मानना है कि कला सबसे पहले शैली और तकनीक है उसके बाद और कुछ। लेकिन उसका कहना था कि कला तकनीक केवल पद्धति या रीति नहीं है, वह कला की वस्तु भी है। उसकी दृष्टि में कलाकार क्या कहता है यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि वह कैसे कहता है।
रूपवादी कलाकार को एक कारीगर या शिल्पी के रूप में देखते हैं। रूपवादी यह मानता है कि कविता सबसे पहले तकनीक है और तकनीक पूरी रूप रचना है, मात्र पद्धति नहीं। कवि के जीवन के यथार्थ को शब्द संघटना के सहारे एक सुन्दर कविता का रूप दे दिया है। जीवन यथार्थ कविता में समाहित है। उसका पृथक अस्तित्व नहीं रह जाता। कविता अपनी पूर्णता में भाषिक संरचना ही है। पाठक पर प्रभाव इसी संरचना का पड़ता है। इससे गुजरते हुए वह कवि की अनुभूति और उसमें स्पंदित जीवन यथार्थ तक पहुंचता है।
रूसी रूपवाद के पुरोधा श्केलोवस्की ने कहा था- ‘‘कला हमेशा जिंदगी से मुक्त होती हे। इसका ध्वज शहर की चारदीवारी पर फहराते हुए झंडे के रंग को प्रतिबिंबित नहीं करता।’’उसका निश्चित मत था कि -‘‘कला-रूपों का विवेचन कला-नियमों द्वारा ही होना चाहिए।’’
नई समीक्षा, शैली विज्ञान, और संरचनावाद आदि सभी समीक्षा पद्धति एक प्रकार से रूपवादी ही मानी जाएंगीं।
रूपवाद पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए डॉ. बच्चन सिंह कहते हैं- ‘‘वस्तुतः रूपवाद, कलावाद का ही दूसरा नाम है। इस कलावाद ने समीक्षा के क्षेत्र में काफी कहर ढाया है। साहित्य को जीवन से अलग करके सिर्फ संरचना तक ही अपने को सीमित कर लेना प्रतिक्रियावादी मनोवृत्ति की चरमसीमा है। साहित्य के आस्वाद से भी इसे कुछ लेना-देना नहीं है। जिस संवेदना शून्य भाषा यानी रोज़मर्रा की भाषा को संवेदन पूर्ण बनाने की चेष्टा की जाती है उसमें संवेदना क्या है ? ‘रूपवाद’ इस पर भी विचार नहीं करता।’’
संरचनावादी भाषिकी और संरचनात्मक नृतत्वशास्त्र से रूपवादी समीक्षा का अद्भुत साम्य है। रूपवादी भी स्वनिमीय उपायों तक ही अपने को सीमित रखते हैं। स्वनिमीय वस्तु, संदेश, इतिहास आदि से उसे कुछ लेना-देना नहीं है।उसकी दृष्टि मे कला की स्वायत्तता निर्विकार है और कला की पड़ताल का क्षेत्र उसका रूप है। समीक्षा को साहित्य से ‘क्या’ से नहीें, ‘कैसे’ से अपना संबंध रखना चाहिए।
जैकोब्सन के मतानुसार- समीक्षक को साहित्यिकता या उन तत्त्वों से जिनसे साहित्य निर्मित होता है, उलझना चाहिए। साहित्य की संरचना कृति है, कृतिकार में नहीं, कविता में है, कवि में नहीं।
श्केलोवस्की का कहना है कि कला का केंद्रवर्ती बिंदु ‘अजनबी बनाने’ में है, यथार्थ को डिस्टॉर्ट(रूप परिवर्तन) करने मंे है। पहचानी हुई चीज पर अनचाहेपन का रंग चढ़ाने में है। साहित्यिक भाषा अजनबी होती ही है। इसी को कुंतक विचित्र अभिधा कहते हैं।
रूपवादी भाषा पर जोर देते हैं, क्योंकि साहित्य की भाषा सामान्य से कहीं उदात्त होती है। कविता में शब्द विचारों का वाहक मात्र नहीं है, अपने आप में वस्तु (ऑब्जेक्ट) है, स्वायत्त इकाई (इंटिटी) है। वह वाचक न होकर स्वयं वाच्य (सिग्नीफाइड) है। काव्यगत शब्द का निश्चित वाच्यार्थ नहीं होता। वह काव्य में प्रयुक्त होकर वाच्यार्थ को विस्तार देता है और अन्य अभिधेयों से संबंद्ध होकर दूसरे अर्थ में संक्रमित कर जाता है।
रूपवाद में यथार्थ के प्रति कवि का दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि भाषा के प्रति उसके दृष्टिकोण का महत्त्व है। क्योंकि वह पाठक को जागरूक बनाकर भाषा की संरचना देखने में मदद करता है। कविता सामान्य भाषा को निरूपित करती है, उसे विलक्षण बनाती है। जहां तक साहित्य के इतिहास का संबंध है रूपवादी समीक्षकों की दृष्टि में वह रूपों के परिवर्तन का इतिहास है।
साहित्य एक प्रकार की भाषिक संरचना (लांग) है जो अपने आप में स्वायत्त, आंतरिक संगति से पूर्ण और आत्मानुशासित है और अन्ततः संरचनात्मक भाषिकी और नृतत्त्वशास्त्र से संबंद्ध हो जाती है। हर वैयक्तिक कृति वाक् (पेरोल) है जो मूल भाषा (लांग) से बंधी हुई है और दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।
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