कालरिज: कल्पना और फैन्सी

कालरिज: कल्पना और फैन्सी

कल्पना सिद्धांत:

कॉलरिज ने कल्पना को सौंदर्य विधायिनी तथा सर्जनात्मक शक्ति के रूप मेंस्वीकार किया है। उसके अनुसार ‘‘कवि प्रतिभा का शरीर उत्तम बोध है.ऊहा उसका 
वस्त्रावरण है, गति उसका जीवन है और कल्पना उसकी आत्मा है, जो सर्वत्र और प्रत्येक में है और सबको समन्वित कर उसे एक ललित ओर सुबोध परिपूर्ण रूप प्रदान करती है।’’

कालरिज ने मौलिक काव्य प्रतिभा की
निम्नांकित बातों में पहचान निकाली है -

1. विषयानुरूप छंद रचना का माधुर्य

2.विषय का चयन

3. कल्पना

4. विचार की गहराई और उसकी ऊर्जा

पाश्चात्य काव्य चिंतन के क्षेत्र में कल्पना का वही स्थान है जो भारतीय काव्यशास्त्र में ‘प्रतिभा’ का है। प्लेटो ने कल्पना के लिए फैन्टेसिया शब्द का प्रयोग किया 
तथा एडिसन(1672-1719) ने उसे मूर्ति विधानकरने वाली शक्ति बताया है। कल्पना के संबंध में सबसे महत्त्वपूर्ण विचार कॉलरिज के हैं।

कॉलरिज ने कल्पना के संबंध में विस्तार से विचार प्रकट किये हैं। उनके विचार से वह कल्पना शक्ति ही है जो 
निराकार विचारों और भावों को रूपायित करती है। इतना ही नहीं, भाव और विचार के बीच , जो एकदूसरे के विरोधी माने जाते हैं- सामंजस्य और अन्विति स्थापित करती है। वाह्य पदार्थों और आत्मतत्त्व के संबंध स्थापित करने में भी
कल्पना शक्ति का हाथ रहता है।
उन्होंने कल्पना (इमेजिनेशन) और ऊहा(फैन्सी) के अंतर पर भी प्रकाश डाला है।यद्यपि दोनों तात्त्विक रूप से एक हैं, तथापिअंतर है। कल्पना काव्यगत सार्थक और उपयुक्त बिंबों की रचना करती है, जबकि ऊहा कपोल कल्पना, दिवास्वप्न वाले अनर्गल, 
अवास्तविक कार्यकलाप को मन में 
रूपायित करती है। ऊहा निम्नकोटि की मनगढंत बिंब रचना करती है। वह स्वच्छंद व अननुशासित होती है। पंरतु कल्पना आत्म की एक शक्ति है। वह दिव्य है, सर्जनात्मक है। रचना-शीलता उसका गुण है। रचनाशील होने के कारण वह विवेकमय होती है। कल्पना निर्मित बिंब सार्थक और संबंद्ध होते हैं। उनमे क्रम और औचित्य रहता है।वह जड़ और चेतन तथा भाव और विचार केबीच सामंजस्य स्थापित करती है। विचार और भाव को साकार करना कल्पना का कार्य है।

 कल्पना दो प्रकार की होती है- एक मुख्य या प्राथमिक और दूसरी गौण या अनुवर्ती।
मुख्य कल्पना मानव-ज्ञान की जीवंत शक्ति और प्रमुख माध्यम होती है। असीम में होने वाली अनंत सर्जन-क्रिया की ससीम मन में होने वाली वह प्रतिकृति है। गौण या अनुवर्ती कल्पना उसकी छाया मात्र है। सचेतन संकल्प शक्ति के साथ उसका सह-अस्तित्व होता है। दोनों में तात्त्विक भेद नहीं, अंतर मात्रा और 
क्रिया विधि का है। कविता को इससे प्रेरणा मिलती है।

कॉलरिज ने कल्पना के दो भेद किए हैं-

1. प्राथमिक - प्राथमिक कल्पना ईश्वर की सर्जना शक्ति का ही मनुष्य के मन में
प्रतिबिंब है अर्थात् असीम सत्ता की चिरंतनसृजन शक्ति का ही ससीम मानव में आवृत्ति है।यह अखिल ब्रह्मांड उसी (असीम ब्रह्म) कीकल्पना या सृजन शक्ति का परिणाम है। असीम ब्रह्म की कल्पना शक्ति का प्रतिबिंब ससीम
मनुष्य के मन पर पड़ता है और उसमें 
कल्पना शक्ति जागृत हो जाती है। ससीम मनुष्य को इसी शक्ति के माध्यम से व्यक्त जगत का ज्ञान 
होता है। 

2.गौण या अनुवर्ती - यह कल्पना प्राथमिक कल्पना का निचला स्तर है। इसके माध्यम से मनुष्य स्वयं सृष्टि रचने में समर्थ होताहै। यह दूसरे कोटि की कल्पना ही काव्य क्षेत्र में क्रियाशील होती है।
कॉलरिज से पहले कल्पना और ललित
कल्पना में अंतर नहीं किया जाता था, किंतुकॉलरिज ने इन दोनों में अंतर स्थापित करदिया। ललित कल्पना का संबंध अचल और
निर्दिष्ट पदार्थों से है। वह कल्पना को ललित-कल्पना से श्रेष्ठ मानता है। वह यह भी मानता है कि जिस प्रकार प्रतिभा को प्रज्ञा की
आवश्यकता है, उसी प्रकार कल्पना को
भी ललित-कल्पना की आवश्यकता है।यह एक दूसरे से भिन्न शक्तियां हैं। कल्पना का काम एकीकरण और
पुनर्निमाण है, ललित कल्पना केवल संयोजन मात्र करती है, किंतु उस संयोजन में सरसता और मार्मिकता का अभाव होता है।कल्पना का संबंध आत्मा और मन से है, 
जबकि ललित कल्पना मस्तिष्क से संबंधित है। ललित कल्पना निर्जीव शक्ति है। कल्पना आत्मिक और ललित कल्पना यांत्रिक होती है। ललित कल्पनाक्रम, अनुपात और व्यवस्था के बिना वस्तुओं का ढेर लगाती है, वह उन्हें एकत्रित, संगठित 
और जीवंत रूप नहीं दे सकती। जिस प्रकार स्वप्न में मनुष्य अनेक विचारों को एकत्र तो करता हैकिंतु उन्हें क्रम और अन्विति नहीं दे पाता।
इस प्रकार कॉलरिज का कल्पना सिद्धांत मौलिक और महत्त्वपूर्ण है। कॉलरिज पर जर्मन दार्शनिक शेलिंग और काण्ट का
प्रभाव देखा जा सकता है।

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