लौंजाइनस का औदात्य सिद्धांत
लौंजाइन एक परिचय- ई.पू. तीसरी शताब्दी केयूनानी विचारक, कुछ लोग ईसा की पहलीशताब्दी में रोम का रहने वाला काव्यशास्त्रीमानते हैं। इनके ग्रंथ पेरिहुप्सुस की खोज 16वीशताब्दी में हो सकी और इसका प्रथम संस्करण1554 में प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ का अंग्र्र्रेजीअनुवाद ‘ दि सब्लाइम’ किया गया । इन्होंनेऔदात्य की प्रेरणा कैसिलियस के निबंध‘उदात्त’ से ली।
औदात्य सिद्धांत:- लौंजाइनस की औदात्यसंबंधी अवधारणा बड़ी व्यापक है तथासाहित्येतर इतिहास, दर्शन और धर्म जैसे विषयोंको भी समाविष्ट कर लेती है। लौंजाइनस नेउदात्त तत्त्व से परिपूर्ण रचना को ही श्रेष्ठ मानाहै। उसके विचारों को निम्नांकित बिंदुओं केमाध्यम से स्पष्ट किया जा सकता हैः-
ऽ उसने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों के इनमतों का खंडन किया कि काव्य का उद्देश्यपाठक को मात्र आनंद प्रदान करना, शिक्षा देनाऔर अपनी बात मनवाना है । उसने यह मानाकि काव्य का लक्ष्य पाठक को चरम उल्लासप्रदान करना है। उसको तर्क द्वारा बाध्य करनानहीं, अपितु पाठक या श्रोता को ‘स्व’ से ऊपरउठाना हैै। उसे ऐसी उच्च भावभूमि पर पहुँचादेना है जहाँ निरी बौद्धिकता पंगु हो जाय औरवर्ण्य विषय विद्युत प्रकाश की भांति आलोकितहो जाय।
ऽ कल्पना के बारे में उसने स्वीकार कियाकि काव्य का संबंध तर्क से न होकर कल्पना सेहै। साहित्यकार अपनी तर्क शक्ति द्वारा नहींअपनी कल्पना के द्वारा पाठक को आकर्षितकरता है।
ऽ उसके मतानुसार जिस साहित्यकार काअध्ययन जितना गहन और विशद होगा, उसकासाहित्य सौंदर्य से उतना ही आपूरित होगा।
ऽ उसने उदात्त सिद्धांत को तीन वर्गों मेंविभाजित किया-
व अंतरंग तŸव -
विषय की गरिमा
भावावेश या आवेग की तीब्रता(भव्य आवेग तथा निम्न आवेग - भव्य आवेग सेउत्कर्ष तथा निम्न आवेग से अपकर्ष )
व बहिरंग तŸव -
समुचित अलंकार योजना (विस्तारणा, शपथोक्ति, प्रश्नालंकार, विपर्यय, व्यतिवम, पुनरावृत्ति और छिन्नवाक्य, प्रत्यक्षीकरण, संचयन सार, रूप परिवर्तन, पर्यायोक्ति)
उत्कृष्ट भाषा (भव्य शब्दावली एवंपद रचना)
गरिमामयी उदात्त संरचना (वाक्यविन्यास या रचना विधान)- उदात्त शैली के सभीतत्त्व एकान्वित कर एक व्यवस्थित क्रम में होतथा उनमें सामंजस्य हो।
व विरोधी तŸव -
बालेयता या तुच्छता
असंयत वाग्विस्तार
क्षुद्रार्थद्योतक शब्द रचना
भाव एवं शब्दों का घोर अनावश्यकआडंबर
अभिव्यक्ति की आवश्यक संक्षिप्तता
क्षुद्रता
ऽ विषय में ज्वालामुखी के समानअसाधारण शक्ति और वेग तो होना ही चाहिएसाथ में ईश्वर का सा ऐश्वर्य और वैभव होनाचाहिए। वह ऐसा होना चाहिए जिससे प्रभावितन होना असंभव हो जाय।
ऽ उपयुक्त शब्द चयन, प्रभावशाली एवंउदाŸा भाषा को प्रमुखता।
ऽ मिथ्या चमत्कार हेतु अलंकार प्रयोग कोवर्जित माना।
ऽ बालेयता, असंगत वाग् विस्तार, क्षुद्रार्थद्योतक शब्द रचना , भाव एवं शब्दों का घोरअनावश्यक आडंबर, अभिव्यक्ति कीअनावश्यक संक्षिप्तता एवं क्षुद्रता आदि कोविरोधी तत्त्व माना है।
ऽ विरोधी तŸवों के प्रयोग से काव्य मेंनिकृष्टता आ जाती है।
ऽ गरिमामयी भाषा प्रत्येक अवसर केअनुकूल नहीं क्योंकि छोटी-छोटी बातों को भारीभरकम संज्ञा देना, किसी छोटे बच्चे को पूरेआकार वाला मुखौटा लगा देने के समान हैै।
ऽ महान प्रतिभाशाली,उच्च विद्वान एवंचरित्रवान व्यक्ति ही उदात्त रचनाएं दे सकता हैजैसे - होमर।
ऽ लौंजाइनस में स्वच्छंदतावाद औरअभिव्यंजनावाद दोनों के तत्त्व विद्यमान हैं।
ऽ जिस प्रकार शरीर के सभी अवयवों काअलग-अलग रहने पर कोई महत्त्व नहीं सबमिलकर ही एक समग्र और संपूर्ण शरीर कीरचना करते हैं उसी प्रकार उदात्त शैली के सभीतत्त्व जब एकाचित कर दिए जाते हैं तभी उनकेकारण कृति गरिमामयी बनती है।
ऽ यदि एक प्रतिभाशाली व्यक्ति चारित्रिकदृष्टि से हल्का एवं छिछोरा है, उसकी वासनाएंअपरिष्कृत एवं प्रवृŸिायां क्षुद्र हैं तो ऐसीअवस्था में उससे औदात्य की आशा नहीं की जासकती।
ऽ भावावेग के उद्वेलन एवं उससे उत्पन्नआनंद की बात को स्वीकार करते हुएलौंजाइनस ने भारतीय काव्यशास्त्र के रससिद्धांत की धारणाओं को ही पुष्ट किया है।
ऽ विरोधी तत्त्वों को भारतीय काव्यशास्त्रमें काव्य दोष माना गया है जो रस सृष्टि मेंबाधक होते हैं।
ऽ भारतीय काव्यशास्त्र में कुंतक कावक्रोक्ति सिद्धांत उदात्त के बहुत समीप है।
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