एक फूल की चाह-सियाराम शरण गुप्त
कवि परिचय
कवि - सियारामशरण गुप्त
जन्म - 1895
जन्म | 04 सितम्बर 1895 |
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निधन | 29 मार्च 1963 |
जन्म स्थान | चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश, भारत |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
विषाद, आद्रा, अनाथ, उन्मुक्त, गोपिका, मृण्मयी, पुण्य पर्व, गोद, नारी, मानुषी, अन्तिम आकांक्षा, झूठ-सच आदि। | |
विविध | |
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई। भारतीयता एवं भारतीय संस्कृति के पक्षधर। गाँधी जी के सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्तों के समर्थक। अत्यन्त सरल और सौम्य व्यक्ति। |
पाठ का सार
प्रस्तुत पाठ गुप्त जी की कविता ‘एक फूल की चाह' का एक छोटा सा भाग है। यह पूरी कविता छुआछूत की समस्या पर केंद्रित है। कवि कहता है कि एक बडे़ स्तर पर फैलने वाली बीमारी बहुत भयानक रूप से फैली हुई थी। उस महामारी ने लोगों के मन में भयानक डर बैठा दिया था। इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी जिसका नाम सुखिया था, उसको बार-बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय डर के मारे काँप उठता था। वह यही सोचता रहता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए। एक दिन सुखिया के पिता ने पाया कि सुखिया का शरीर बुखार से तप रहा था। उस बच्ची ने अपने पिता से कहा कि वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती है ताकि वह ठीक हो जाए। सुखिया के शरीर का अंग-अंग कमजोर हो चूका था। सुखिया का पिता सुखिया की चिंता में इतना डूबा रहता था कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहता था। जो बच्ची कभी भी एक जगह शांति से नहीं बैठती थी, वही आज इस तरह न टूटने वाली शांति धारण किए चुपचाप पड़ी हुई थी। कवि मंदिर का वर्णन करता हुआ कहता है कि पहाड़ की चोटी के ऊपर एक विशाल मंदिर था। उसके विशाल आँगन में कमल के फूल सूर्य की किरणों में इस तरह शोभा दे रहे थे जिस तरह सूर्य की किरणों में सोने के घड़े चमकते हैं। मंदिर का पूरा आँगन धूप और दीपकों की खुशबू से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर माहौल ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ कोई उत्सव हो। जब सुखिया का पिता मंदिर गया तो वहाँ मंदिर में भक्तों के झुंड मधुर आवाज़ में एक सुर में भक्ति के साथ देवी माँ की आराधना कर रहे थे। सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल गई। पुजारी ने सुखिया के पिता के हाथों से दीप और फूल लिए और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर दिया। फिर जब पुजारी ने उसे दोनों हाथों से प्रसाद भरकर दिया तो एक पल को वह ठिठक सा गया। क्योंकि सुखिया का पिता छोटी जाति का था और छोटी जाति के लोगों को मंदिर में आने नहीं दिया जाता था। सुखिया का पिता अपनी कल्पना में ही अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे रहा था। सुखिया का पिता प्रसाद ले कर मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक किसी ने पीछे से आवाज लगाई, “अरे यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इसे पकड़ो कही यह भाग न जाए।' वे कह रहे थे कि सुखिया के पिता ने मंदिर में घुसकर बड़ा भारी अनर्थ कर दिया है और लम्बे समय से बनी मंदिर की पवित्रता को अशुद्ध कर दिया है। इस पर सुखिया के पिता ने कहा कि जब माता ने ही सभी मनुष्यों को बनाया है तो उसके मंदिर में आने से मंदिर अशुद्ध कैसे हो सकता है। यदि वे लोग उसकी अशुद्धता को माता की महिमा से भी ऊँचा मानते हैं तो वे माता के ही सामने माता को नीचा दिखा रहे हैं। लेकिन उसकी बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उसे घेर लिया और उसपर घूँसों और लातों की बरसात करके उसे नीचे गिरा दिया। लोग उसे न्यायलय ले गये। वहाँ उसे सात दिन जेल की सजा सुनाई गई। जेल के वे सात दिन सुखिया के पिता को ऐसे लगे थे जैसे कई सदियाँ बीत गईं हों। उसकी आँखें बिना रुके बरसने के बाद भी बिलकुल नहीं सूखी थीं। जब सुखिया का पिता जेल से छूटा तो उसके पैर उसके घर की ओर नहीं उठ रहे थे। सुखिया के पिता को घर पहुँचने पर जब सुखिया कहीं नहीं मिली तब उसे सुखिया की मौत का पता चला। वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा दौड़ता हुआ शमशान पहुँचा जहाँ उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया था। अपनी बेटी की बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठा। उसकी सुंदर फूल सी कोमल बच्ची अब राख के ढ़ेर में बदल चुकी थी।
सम्पूर्ण कविता-
उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ, हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में हाहाकार अपार अशान्त।
बहुत रोकता था सुखिया को 'न जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ किसी भांति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाये, हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह, क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर।
बेटी, बतला तो तू मुझको किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा! मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको कौन यहाँ लाने देगा?
बार बार, फिर फिर, तेरा हठ! पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे, धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा! हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है विपुल वेदना, व्यथा नई।
मैंने कई फूल ला लाकर रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको, किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर!
क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया, शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा, कब आई सन्ध्या गहरी।
सभी ओर दिखलाई दी बस, अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें जगमग जगते तारों से।
देख रहा था - जो सुस्थिर हो नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर!
हे मात:, हे शिवे, अम्बिके, तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह, हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी, हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर साँसों में ही हाय यहाँ!
अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी तेरे श्री-मन्दिर को छूत?
किसे ज्ञात, मेरी विनती वह पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर प्रलय-घटा सी छाई तू!
पग भर भी न बढ़ी आगे तू डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी, सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं, तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू, बोल, बोल, कुछ तो बेटी!
वह चुप थी, पर गूँज रही थी उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का - एक फूल तुम दो लाकर!'
"कुछ हो देवी के प्रसाद का एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही मन्दिर को मैं जाऊँगा।
तुझ पर देवी की छाया है और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में रोक सकेगा कौन मुझे।"
मेरे इस निश्चल निश्चय ने झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से रंजित भाल नभस्थल का!
झड़-सी गई तारकावलि थी म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो, सलिल-सुधा से तनु को सींच।
उज्वल वस्र पहन घर आकर अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से सजली पूजा की थाली।
सुकिया के सिरहाने जाकर मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी मुरझा-सा था पड़ा हुआ।
मैंने चाहा - उसे चुम लें, किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा! कर न सकी मुझको मुद-मग्न।
अक्षम मुझे समझकर क्या तू हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का एक फूल तो दूँ लाकर!
ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की, ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था कल कल मधुर गान कर कर।
पुष्प-हार-सा जँचता था वह मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी, माता, तेरी जय-जय-जय!"
"पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" - मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को जानें किस बल से ढिकला!
माता, तू इतनी सुन्दर है, नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की, कैसी विधी यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह श्री-चरणों तक आया है।
मेरे दीप-फूल लेकर वे अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।
सिंह पौर तक भी आंगन से नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किये है, भले मानुषों जैसा!
पापी ने मन्दिर में घुसकर किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मनिदर की चिरकालिक शुचिता सारी।"
ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार मार कर मुक्के-घूँसे धम-से नीचे गिरा दिया!
मेरे हाथों से प्रसाद भी बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस यह एक फूल कोई भी दो बच्ची को ले जाकर।
न्यायालय ले गये मुझे वे सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का क्या उत्तर देता; क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी दूर न था गिरिजाघर भी।"
कैसे उनको समझाता मैं, वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था बेटी ने अपने मुख से।
दण्ड भोग कर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा! अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी तुझको दे न सका मैं हा!
वह प्रसाद देकर ही तुझको जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का सभी विभव मैं हर लेता?
यहीं चिता पर धर दूँगा मैं, - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही लाकर दो!
व्याख्या
उद्वेलित कर अश्रु राशियाँ,
हृदय चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।
एक महामारी प्रचंड रूप से फैली हुई थी जिसने लोगों की अश्रु धाराओं को उद्वेलित कर दिया था और दिलों में आग लगा दी थी। जिन औरतों की संतानें उस महामारी की भेंट चढ़ गई थीं उनके कमजोर पड़ते गले से लगातार करुण रुदन निकल रहा था। उस कमजोर पर चुके रुदन में भी अपार अशांति का हाहाकार मचा हुआ था।
बहुत रोकता था सुखिया को,
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।
इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी सुखिया को बार बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय काँप उठता था। वह यही सोचता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए।
भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
लेकिन वही हुआ जिसका कि डर था। एक दिन सुखिया का बदन बुखार से तप रहा था। उस बच्ची ने बुखार की पीड़ा में से बोला कि उसे किसी का डर नहीं था। वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती थी ताकि वह ठीक हो जाए।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।
सुखिया में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि मुँह से कुछ आवाज निकाल पाए। उसके अंग अंग शिथिल हो रहे थे। उसका पिता किसी चमत्कार की आशा में चिंति बैठा हुआ था। पता ही न चला कि कब सुबह से दोपहर हुई और फिर शाम हो गई।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया।
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते से अंगारों से,
झुलसी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।
चारों और अंधकार ही दिख रहा था जो लगता था कि उस मासूम बच्ची को डसने चला आ रहा था। ऊपर विशाल आकाश में चमकते तारे ऐसे लग रहे थे जैसे जलते हुए अंगारे हों। उनकी चमक से आँखें झुलस जाती थीं।
देख रहा था जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
जो बच्ची कभी भी स्थिर नहीं बैठती थी, आज वही चुपचाप पड़ी हुई थी। उसका पिता उसे झकझोरकर पूछना चाह रहा था कि उसे देवी माँ के प्रसाद का फूल चाहिए।
ऊँचे शैल शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि कर जाल।
दीप धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।
पहाड़ की चोटी के ऊपर एक विशाल मंदिर था। उसके प्रांगन में सूर्य की किरणों को पाकर कमल के फूल स्वर्ण कलशों की तरह शोभायमान हो रहे थे। मंदिर का पूरा आँगन धूप और दीप से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर किसी उत्सव का सा माहौल था।
भक्त वृंद मृदु मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद मय,
‘पतित तारिणी पाप हारिणी,
माता तेरी जय जय जय।‘
‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढ़िकला।
भक्तों के झुंड मधुर वाणी में एक सुर में देवी माँ की स्तुति कर रहे थे। सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल गई। फिर उसे ऐसा लगा कि किसी अज्ञात शक्ति ने उसे मंदिर के अंदर धकेल दिया।
मेरे दीप फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
सोचा, बेटी को माँ के ये,
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं।
पुजारी ने उसके हाथों से दीप और फूल लिए और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर दिया। फिर जब पुजारी ने उसे प्रसाद दिया तो एक पल को वह ठिठक सा गया। वह अपनी कल्पना में अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे रहा था।
सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा।
अभी सुखिया का पिता मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाया था कि किसी ने पीछे से आवाज लगाई, “अरे यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इस धूर्त को तो देखो, कैसे सवर्णों जैसे पोशाक पहने है। पकड़ो, कहीं भाग न जाए।“
पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कलुषित कर दी है मंदिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।“
ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा के भी?
किसी ने कहा कि उस पापी ने मंदिर में घुसकर बड़ा भारी अनर्थ कर दिया और मंदिर को अशुद्ध कर दिया। सुखिया के पिता ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता था कि माता की महिमा के आगे उसकी कलुषता अधिक भारी हो।
माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा।
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया;
मार मारकर मुक्के घूँसे
धम्म से नीचे गिरा दिया।
सुखिया के पिता ने आगे कहा कि यदि वे लोग उसकी अशुद्धता को माता की महिमा से भी ऊँचा मानते हैं तो वे माता को नीचा दिखा रहे हैं। लेकिन उसकी बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उसे घेर लिया और उसपर घूँसों और लातों की बरसात होने लगी।
मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सबका सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात दिवस का दंड विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!
उसके हाथों से प्रसाद बिखर गया। वह दुखी हो गया क्योंकि अब उसकी बेटी तक प्रसाद नहीं पहुँचने वाला था। लोग उसे न्यायलय ले गये। उसे सात दिन जेल की सजा सुनाई गई। उसे लगा कि अवश्य ही उससे देवी का अपमान हो गया है।
मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविश्रांत बरसा के भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।
सुखिया के पिता ने सिर झुकाकर उस दंड को स्वीकार कर लिया। उसके पास अपनी सफाई में कहने को कुछ नहीं था। जेल के वे सात दिन ऐसे थे जैसे सदियाँ बीत गईं हों। उसकी आँखें अनवरत बरसने के बाद भी सूखी थीं।
दंड भोगकर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय जर्जर तनु पंजर को।
पहले की सी लेने मुझको
नहीं दौड़कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।
जब वह जेल से छूटा तो उसके पैर नहीं उठ रहे थे। लगता था कि भय से ग्रस्त उसकी काया को कोई घर की ओर ठेल रहा था। जब वह घर पहुँचा तो हमेशा की तरह उसकी बेटी दौड़कर नहीं आई। न ही वह कहीं खेलती हुई दिखाई दी।
उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढ़ेरी।
वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा शमशान पहुँचा जहाँ उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया था। बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठा। उसकी सुंदर बच्ची अब राख के ढ़ेर में बदल चुकी थी।
अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा।
वह विलाप करने लगा। उसे अफसोस हो रहा था कि अपनी बेटी को अंतिम बार गोदी में न ले सका। उसे इस बात का भी अफसोस हो रहा था कि अपनी बेटी को वह देवी का प्रसाद भी न दे सका।
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
बीमार बच्ची ने क्या इच्छा प्रकट की?
उत्तर: बीमार बच्ची ने कहा कि उसे देवी माँ के प्रसाद का फूल चाहिए।
सुखिया के पिता पर कौन सा आरोप लगाकर उसे दंडित किया गया?
उत्तर: सुखिया के पिता पर मंदिर को अशुद्ध करने का आरोप लगाया गया। वह अछूत जाति का था इसलिए उसे मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं था।
जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता ने बच्ची को किस रूप में पाया?
उत्तर: जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता ने बच्ची को राख की ढ़ेर के रूप में पाया।
इस कविता का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर: इस कविता में छुआछूत की प्रथा के बारे में बताया गया है। इस कविता का मुख्य पात्र एक अछूत है। उसकी बेटी एक महामारी की चपेट में आ जाती है। बेटी को ठीक करने के लिए वह मंदिर जाता है ताकि देवी माँ का प्रसाद ले आये। मंदिर में सवर्ण लोग उसकी जमकर धुनाई करते हैं। फिर उसे सात दिन की जेल हो जाती है क्योंकि एक अछूत होने के नाते वह मंदिर को अशुद्ध करने का दोषी पाया जाता है। जब वह जेल से छूटता है तो पाता है कि उसकी बेटी स्वर्ग सिधार चुकी है और उसका दाह संस्कार भी हो चुका है। एक सामाजिक कुरीति के कारण एक व्यक्ति को इतना भी अधिकार नहीं मिलता है कि वह अपनी बीमार बच्ची की एक छोटी सी इच्छा पूरी कर सके। बदले में उसे जो मिलता है वह है प्रताड़ना और घोर दुख।
कविता की उन पंक्तियों को लिखिए, जिनसे निम्नलिखित अर्थ का बोध होता है:
सुखिया के बाहर जाने पर पिता का हृदय काँप उठता था।
उत्तर: मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।
पर्वत की चोटी पर स्थित मंदिर की अनुपम शोभा।
उत्तर: ऊँचे शैल शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि कर जाल।
पुजारी से प्रसाद/फूल पाने पर सुखिया के पिता की मन:स्थिति।
उत्तर: दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
पिता की वेदना और उसका पश्चाताप।
उत्तर: अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा।
निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट करते हुए उनका अर्थ सौंदर्य बताइए:
अविश्रांत बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं
उत्तर: उसकी आँखें निरंतर बरसने के बावजूद अभी भी सूखी थीं। यह पंक्ति शोक की चरम सीमा को दर्शाती है। कहा जाता है कि कोई कभी कभी इतना रो लेता है कि उसकी अश्रुधारा तक सूख जाती है।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर छाती धधक उठी मेरी
उत्तर: उधर चिता बुझ चुकी थी, इधर सुखिया के पिता की छाती जल रही थी।
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी अटल शांति सी धारण कर
उत्तर: जो बच्ची कभी भी एक जगह स्थिर नहीं बैठती थी, आज वही चुपचाप पत्थर की भाँति पड़ी हुई थी।
पापी ने मंदिर में घुसकर किया अनर्थ बड़ा भारी
उत्तर: सुखिया के पिता को मंदिर में देखकर एक सवर्ण कहता है कि इस पापी ने मंदिर में प्रवेश करके बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया, मंदिर को अपवित्र कर दिया।
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