MuktiPrasang/मुक्तिप्रसंग-राजकमल
राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ न सिर्फ़ इस अराजक कवि की उपलब्धि मानी जाती है, बल्कि लंबी कविताओं में भी एक विशिष्ट जगह रखती है. वह भी हमारी लोकतांत्रिक पद्धतियों की दास्तान कहती है जो जन-साधारण को ‘पेट के बल झुका देती हैं.’।
’मुक्ति प्रसंग’ कविता में कुल आठ प्रसंग हैं, जिनमें से पहला प्रसंग प्रस्तुत है।
प्रसंग एक
1.
मृत व्यक्ति
कोई भी एक मृत व्यक्ति
केवल एक मृत व्यक्ति नहीं है किसी भी प्रकार
सरकारी ट्रांसपोर्ट से कुचल दिए गए कुत्ते
अथवा तालाब की सतह पर बिल्ली की फूली हुई लाश से
अधिक कवितामय है
अधिक सुन्दर
अधिक कामोत्तेजक होता है
मृत व्यक्ति
अस्पताल के पलंग में
सोया हुआ बेहोश देखकर मुझको
एक अपरिचित स्त्री
मातमपुर्सी के लिए आई हुई
यही कहती थी
2.
मेरा जन्म हुआ था
त्रिशूली पहाड़ की मन्त्र सिद्ध गुफ़ा में
काली मूर्त्ति के पार्श्व में सद्योजात छोड़कर मुझको
चली गई थी मेरी माँ
ग्रहण करने के लिए जल-समाधि
अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व
उसने स्वीकार किया था अपना अपराध
अथच वो वापस आ गई थी
देखकर नीचे घाटी में
एकाग्र प्रतीक्षारत शिशु-पक्षी गिद्ध
त्रिशूली गुफ़ा के उस संकेत-पथ पर
अतएव बिखरी हुई चट्टानों में अलग-अलग
बँटा हुआ है मेरा जीवन
बावन खण्डों में कटा हुआ
मेरी आँखों का आकाश
जिस पथ से भागती हुई मेरी काँ के घुटने
पाँव की उँगलियाँ
तलुवे, पिण्डलियाँ
नुकीली चट्टानों से हो गए थे लहूलुहान
लहू के छींटे , लहू के छींटॆ
मेरे आकाश के
अलग-अलग टुकड़ों को
सूर्यमुखी करते हुए
अब जिन्हें फिर से एक
अखण्ड सुमेरु बनाने के लिए
मैं एक-एक चट्टान क्रमशः
राजेन्द्र सर्जिकल अस्पताल के नीचे बहती हुई
गंगा नदी में फेंकता जा रहा हूँ
अपनी माँ तीर्थमयी के आरण्यक संस्मरणों में
आकाश के एक-एक टुकड़े
अलकनन्दा में
अन्ततः कविता में
वापस चली आने के कारण ही
अनिवार्य हो गया था माँ के लिए
वरण कर लेना मृत्यु
अन्ततः कविता में उसे जीवित करने के लिए
त्रिशूली गुफ़ा में
मन्त्र सिद्ध
मैंने जन्म ग्रहण किया है
3.
प्रत्येक बार होता है प्रकृति के साथ
निद्रामयी अचेतन समाधिष्ठ प्रकृति के साथ
बर्बर पैशाची बलात्कार
जब भी मैं रचना चाहता हूँ कोई स्वप्न, कोई कविता
रक्तनलिका से
ब्रह्मनलिका तक कोई यात्रा पथ
मुझे सम्भोग करना होता है
विपरीत मुख बलत्कृता होकर ही वह मदालसा
सृष्टि ध्वजा दण्ड धारण करती है
अपने षटचक्र रथ पर
रति व्याकुल होकर
उत्तप्त रचना में
योगिनी-सहयोगिनी
स्थान, काल, पात्र की
शारीरिक-स्थितियों का
अगर शीलभंग करती है मेरी कविता
उसे अब और कुछ नहीं करना चाहिए
कुछ नहीं करना चाहिए।
4.
सुरक्षा की मोह में ही
सबसे पहले मरता है आदमी
अपने शरीर के इर्द-गिर्द
दीवारें ऊपर उठाता हुआ
मिट्टी के भिक्षा-पात्र
आगे, और आगे, और आगे बढ़ाता हुआ
गेहूँ और हथियारबन्द हवाई जहाज़ों के लिए
केवल मोहविहीन होकर ही
जबकि
नंगा, भूखा, बीमार आदमी
सुरक्षित होता है
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