सम्बंधों पर कविता-विष्णु वैश्विक/sambandhon par Kavita-Vishnu Vaishvik

सम्बंधों की भाषा गढ़ते,दोषों का मढ़ते कांटमुकुट।
अविश्वास की जमी धूल,उसमें झूठों के छिपे कूट।

कैसे इन ओछी बातों का सह पाऊंगा मैं बलाघात।
क्या गलत कहूँ इनको? या बह जाऊँ धारा के साथ।।

सामाजिक झंझावातों में डूबा आत्मा का पोर-पोर।
ऊपर से शान्त बना हूँ,है अंतर में मेरे करुण शोर।।

साँसों की भाषा पढ़ पाता,शब्दों की माला गढ़ पाता।
कर पाता स्व को न्यौछावर,मैं पंचतत्व में मिल जाता।।

अब अपनों से ही हार रहा,जीवन को धिक्कार रहा।
सोचा था बहुत कमाया है,पाया!जीवन बेकार रहा।।

वो अपने अब भी अपने हैं? जो बेगानों से रहते हैं।
तुच्छ अहम के पोषणहित,मेरे अनहित में कहते हैं।।

जो होगा देखा जाएगा,देखा क्या झेला जाएगा।
अब वक़्त से जो टकराए हैं,रेले को रेला जाएगा।।

अब मुस्काएँ,विश्वास करें,मन में फ़िर अपने आस भरें।
अपने तो अपने होते हैं,बाकी सब सपने होते हैं।।




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