महिला दिवस के बहाने
सबसे पहले आप सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
दोस्तों एक पुरुषवादी समाज में महिला सशक्तिकरण की बात करना उतना ही आम है जितना की सुबह का अख़बार पढ़ना।लेकिन स्वतंत्रता के नाम पे पुरुष समाज ने जो कुछ भी महिलाओं को दिया है वो मेरी समझ से नाकाफ़ी है।
स्वतंत्रता की सबसे पहली सीढ़ी आर्थिक स्वतंत्रता और दूसरी (वैचारिक)यानि सोचने की स्वतंत्रता है।इन दोनों स्तरों पे आज महिला वर्ग कहाँ खड़ा है हम आप बखूबी जानते हैं।अगर स्वतंत्रता के नाम पे महिलाओं को कुछ मिला भी है तो वो एक छद्म स्वतंत्रता भर है जिसके पीछे परतंत्रता का भाव और गहराता जाता है।जाहिर है कि इस तरह की स्वतंत्रता बाजार प्रदत्त आज़ादी भर है जिसकी धृणित सच्चाई तो उसकी गहराई में जाने के बाद समझ में आ जाती है।
लेकिन एक सुखद अनुभूति यह है कि,अब महिलायें अपने स्वतंत्रता का मूल्य समझने लगीं हैं और अपनी स्वतंत्रता की मांग भी करने लगी हैं।एक महिला मित्र से हुए संवाद के दौरान उन्होंने महिला स्वतंत्रता की मांग के पक्ष में जो बातें कहीं,उन्ही को पद्य रूप में आप सबके समक्ष रख रहा हूँ।लेकिन आखिर में बाजार प्रदत्त स्वतंत्रता कहाँ तक उचित है? ये सवाल भी छोड़ के जा रहा हूँ।आप सोचें जरूर...........
कितना करोगे महिमामंडन,अब तो सच में ध्यान करो।
किस्सागोई बहुत हो चुकी,अब सच में सम्मान करो।।
महिला हूँ तो क्या हुआ,नही किसी पे बोझ।
मैं न होती ,तू न होता सोच सके तो सोच।।
तूने मुझको बहुत सताया, सदियों-सदियों है भरमाया।
झूठ-मूठ मेरा गुण गाया, मैंने मेरा कुछ न पाया।।
मैंने सब कुछ सौंप के तुमको,तन और मन भी किया समर्पित।
पर तूने क्या दिया है मुझको? ,झूठी प्रशंसा ,जीवन कुंठित।।
पिंकी,राधा,सोनी,जोती, ऊबी हैं,अकुलाई हैं।
बंद पड़ीं हैं दरवाजों में,सिमटी हैं सकुचाई हैं।।
मार्ग प्रशस्त करके इनका अब,निज जीवन उद्धार करो।
बहुत कर चुके महिमामंडित,अब सच में सम्मान करो।।
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