भक्तिकाल-हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग
भक्तिकाल नि:संदेह हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग है । इस काल का साहित्य अपने पूर्ववर्ती एवं परवर्ती साहित्य से निश्चित रूप उत्कृष्ट है । आदिकाल में कविता वीर और शृंगार रस प्रधान थी । कवि राजाश्रित थे । आश्रयदाता का गुणगान ही उनका लक्ष्य था । जीवन के अन्य क्षेत्रों की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया । दूसरे, आदिकालीन साहित्य की प्रामाणिकता संदिग्ध है । भक्तिकाल के उत्तरवर्ती साहित्य में अधिकांश साहित्य अश्लील शृंगार है, जो जीवन की प्रेरणा नहीं । रीतिकालीन कविता स्वान्त: सुखाय अथवा जनहिताय न होकर सामन्त: सुखाय है । इसके विपरीत्त भक्ति साहित्य राजाश्रय से दूर भक्ति की मस्ती में स्वान्त: सुखाय व जनहिताय है । समाज का प्रेरणा स्रोत है । हाँ, आधुनिक काल का साहित्य व्यापकता एवं विविधता की दृष्टि से भक्तिकाल से आगे है । परंतु अनुभूति की गहराई एवं भाव-प्रवणता की दृष्टि से वह भक्ति काल के साहित्य की तुलना में नहीं ठहरता । आधुनिक काल का साहित्य बुद्धिप्रधान है जबकि भक्तिकाल का साहित्य भावप्रधान । ह्रदय बुद्धि पर हावी है ।
डॉ. श्याम सुंदर दास के शब्दों में -"जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी , सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अंत:करणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यत: भक्तियुग कहते हैं । निश्चय ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था । ......... हिंदी काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाए, तो जो बचेगा वह इतना हल्का होगा कि हम उस पर किसी प्रकार का गर्व न कर सकेंगे । ...तुलसीदास, सूरदास,नंददास,मीरा,रसखान,हितहरिवंश,कबीर इनमें से किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है । हमारे पास ये सब है । ये वैष्णव कवि हिंदी-भारती के कंठमाल हैं । "
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि में - समूचे भारतीय इतिहास में ये अपने ढ़ग का अकेला साहित्य है । इसी का नाम भक्ति साहित्य है । यह एक नई दुनिया है ।
भक्तिकाल में चार काव्यधाराएँ - संत काव्यधारा, प्रेम काव्यधारा, कृष्ण काव्यधारा व राम काव्यधारा - एक साथ चलती रही हैं । भगवान के साथ संबंध -स्थापन, गुरु का महत्व तथा भक्ति की प्रधानता चारों धाराओं की सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं । कबीर आदि निर्गुण संतों में रहस्यवाद, भक्ति, खंडन-मंडन एवं सुधार की भावनाएँ हैं । जायसी, मंझन, कुतुबन आदि प्रेम काव्यधारा के संत प्रेम की पीर के कवि हैं । लौकिक प्रेम कथाओं के माध्यम से इन्होंने आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना की । कृष्णभक्त कवियों ने कृष्ण के लोकरंजक रूप को लेकर सख्य एवं माधुर्यभाव से भक्ति की । वात्सल्य और शृंगार रस का चित्रण अपूर्व है । सूर का सूरसागर गीतिकाव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है । रामकाव्य अपनी उदार भक्ति-भावना, समन्वयवाद और लोकमंगल की भावना की दृष्टि से उत्कृष्ट है ।
भाव पक्ष व कला पक्ष का अद्-भुत समन्वय भक्तिकाल की प्रमुख विशेषता है । कबीर आदि निरक्षर कवियों में भावना एवं अनुभूति की प्रधानता है । फिर भी उनके काव्य में रमणीयता के सभी उपादान हैं । तुलसी,जायसी,सूर और नंददास के काव्य में तो दोनों का अद्-भुत संतुलन है । उनमें ह्रदय की सरस अभिव्यक्ति के साथ सहज वाग्विदग्धता भी है । भाषा, छंद, अलंकार, काव्य-शैलियाँ अर्थात कलापक्ष के सभी उपकरण तथा काव्य के सभी रूप इस साहित्य में हैं । प्रबंध, मुक्तक, गीतिकाव्य,सूक्तिकाव्य, नीतिकाव्य, कथा -काव्य सभी काव्य रूप दर्शनीय हैं ।
भक्तिकालीन साहित्य जहां एक ओर भक्तों के ह्रदय की प्यास बुझाता है, वहां काव्य रसिकों को भी रसमग्न करता है । तुलसी के मानस और सूरदास के सूरसागर में भक्तिभाव की गंभीरता, भाषा की सुकुमारता, अनुभूति की तीव्रता तथा रसोद्रेक की पूर्ण क्षमता है।
भक्तिकाल का साहित्य समन्वय की विराट चेष्टा है । यह समन्वय-भावना भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है । आधुनिक भारतीय धर्म और संस्कृति तुलसी की देन है । भारतीय-धर्म और संस्कृति की पूर्ण रक्षा इस साहित्य द्वारा हुई है ।
आचार्य राम चंद्र शुक्ल के शब्दों में इस काल के कवि भक्त, समाज सुधारक, लोकनायक एवं भविष्य-द्रष्टा थे । जायसी, कबीर और तुलसी के काव्य में समाज को महान संदेश मिलता है । जिसमें लोकमंगल की भावना निहित है ।
रस चित्रण में भक्तिकाव्य अत्यंत उच्च है । तुलसी के नवरसों का सुंदर प्रयोग मानस में किया गया है । सूर ने शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में अपूर्व सफलता प्राप्त की । कबीर और जायसी का विरह वर्णन अत्यंत उत्कृष्ट है ।
भाषा की दृष्टि से ब्रज और अवधि, दोनों भाषाएँ अत्यंत व्यवस्थित, परिमार्जित,अलंकृत एवं परिनिष्ठित रूप में प्राप्त होती हैं ।
संगीतात्मकता ने इस काल के काव्य में मणिकांचन योग दिया है ।सूर, मीरा,तुलसी,कबीर, नानक,रसखान के पद आज भी सह्रदय कंठों में जीवित हैं ।
वस्तुत: भक्तिकाव्य मर्त्य और अमर्त्य का अनूठा संयोग है , जिसमें ह्रदय,मन और आत्मा की पिपासा शांत करने की शक्ति है । इसमें काव्यत्व, भक्ति,संस्कृति और आध्यात्मिकता का मधुर संगम हैं । यही कारण है कि यह काल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग कहलाता है ।
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