सम्वेदनाएँ
इलाहाबाद।साल-2011.
उस साल की ठंड में कोई गुलाबीपन नही था।धूप का रूखापन तो मानो काटने को दौड़ता था।हॉस्टल के बग़ीचे से आने वाली कोयल की आवाज दिल में एक अजीब सी हूक पैदा करती थी।दोस्तों की बातें इरिटेट करती थीं।कॉन्फिडेंस की तो पूरी की पूरी बैंड बजी पड़ी थी।न खाने की सुध,न पीने की।बस एक ही चेहरा और एक ही बात दिमाग में ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह चलते रहते थे।
दोस्तों ने सुझाया की तुमसे न हो पायेगा उसको बोलना।एक कविता लिख डालो।तीन रातों तक लगातार जागकर एक कविता लिखी।वक़्त भी कम्बख्त कितना बेरहम होता है ये उस दिन जाना,जब मंच से कविता पढ़ने का समय आया तो वो जा चुकी थीं।
उसी दिन समझ में आया की हिंदुस्तान में प्रेम करने से ज्यादा मुश्किल है प्रेम को अभिव्यक्त करना।वो नही हैं,लेकिन ये कविता आज भी उन्ही की है।जीवन की पहली कविता -
हम तुम्हे देखते हैं,तुम हमे देखते हो।
न हम बोलते हैं ,न तुम बोलते हो।।
न तुम कुछ कहोगे,न हम कुछ कहेंगे।
तो कब तक चलेगा,ये कैसे चलेगा।।
ने नजरें तुम्हारी,ये कब तक झुकेंगी।
ये झुककर उठेंगी,ये उठकर झुकेंगी।।
तू 'संवेदना' है , मेरी वेदना है ।
बनी रहना मुझमें, जगी रहना मुझमें।।
तू मंजिल है मेरी,मैं तेरा पथिक हूँ।
बड़ी बेकरारी में मैं आजकल हूँ।।
हैं बहुत सारी बातें,बहुत कुछ है कहना,
पर देखूँ जो तुमको तो सब भूल जाऊँ।
की क्या कुछ था कहना,कि क्या कुछ है कहना।।
तू अनुकृति है मेरी,तू प्रतिकृति है मेरी।
तू भावना है मेरी, तू आकृति है मेरी।।
मैं जिन्दा हूँ शायद ,ये आशा है तुमसे;
मिलोगी तुम मुझसे,मिलूंगा मैं तुमसे।
यही है दृष्टि मेरी,यही है सृष्टि मेरी।।
यही है दृष्टि मेरी,यही है सृष्टि मेरी।।
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