एक सवाल

साथियों हिन्द की विविधता पर सबको नाज है ,मुझे भी है।भला कौन अपने देश से प्रेम नही करता ।लेकिन जैसे इन दिनों में वंदेमातरम और जयहिंद के मुद्दों को बहुत ही जोर शोर से उठाया गया वहीँ गरीबी ,भुखमरी,दंगे,भ्रष्टाचार पे बात करने वाले विरले ही दिखे।इन सब तमाशों को देखते हुए दिल में एक क्रोध का ज्वार उठना स्वाभाविक सा है।दिल ने क्रोध को दर्द की तरफ मोड़ दिया और दर्द से सारे भाव एक कविता के माध्यम से बहार आये ।वाही कविता आप लोगों के बीच रख रहा हूँ।
शीर्षक है-एक सवाल....
कहीं पर बाढ़ है ,कंही पर सूखा है।
कोई मरता है खा-खा कर कोई मरता भूखा है।
यदि यही विविधता है हिन्द की,तो क्या प्रासंगिकता है जयहिंद की?
धर्म के नाम पे रोज होते है पंगे।
कहीं हिन्दू,कहीं मुस्लिम,कहीं सिक्खों के दंगे।
हर मनुष्य यहाँ डरा-डरा है।
धर्म के ठेकेदारों का चेहरा खून से हरा है।
यदि यही विविधता है हिन्द की,तो क्या प्रासंगिकता है जयहिंद की?
यहाँ जात-पात के नाम पे झगड़े होते रहते हैं।
ऊंच-नीच के नाम पे लफड़े होते रहते हैं।
धर्म में जाति, जाति में उपजाति का समाज है।
सोचा है कभी? वर्तमान कितना विकट आज है।
असहिष्णुता का दौर अपने चरम पे है।
मनुष्य का अस्तित्व उसके धर्म पे है।
यदि यही विविधता है हिन्द की ,तो क्या प्रासंगिकता है जयहिंद की?
हर दिशा में बस धुंआ-धुंआ सा है।
एक तरफ खाई एक तरफ कुआं सा है।
बस चारों ओर फैला अजीब तमाशा है।
बापू के सपनों की अब न कोई आशा है।
बापू के सपनों की अब न कोई आशा है........विष्णु 'वैश्विक'.

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